Sunday, February 9, 2020

Mai Guru Bhakti माई गुरु भक्ती हिन्दी पुस्तक ई.स. 1944 संस्करण









                            भूमिका

 हिंदी में माई सहस्रनाम पाठ लिखते समय यह बात घड़ी में चक्कर लगाया
 करती थी कि साधारण कोटि के माईभक्तों के लिए तो माईसहस्रनाम की
 नामावली लिखी जा रही है लेकिन जो माई भक्त इस मार्ग में काफ़ी 
उन्नति कर चुकै हैं और जिनको जल्दी आगे बढ़ने की तीव्र महत्वाकांक्षा है 
उनके लिये एक विशिष्ट साधनाविधि लिखी जाय - उच्चकोटि के भक्त की 
परीक्षा गुरु ही कर सकता है इसलिए इसकी विधि भी गुरु से ही सीखनी 
पड़ेगी। इसलिए यह विधि विस्तारसे इस छोटे से ग्रंथ में लिखी नही जा 
रही है और यही योग्य भी है क्योंकि दुरुपयोग की जबाबदारी भी गुरुपरही
रखी या मानी जाती है। आशा है कि इससे सर्व लायक भक्त पूरा पूरा लाभ
उठाकर पुण्य के भागी बनेंगे और अधिक उच्चकोटि की लायकत प्राप्त 
करेंगे और जो माई भक्त अबतक इस दर्जे तक नहीं पहुंचे वे निराश न 
होकर इस दर्जे तक पहुंचने का भगीरथ पुरुषार्थ करेंगे। 

                                          माईमार्कंड


माईवार (शुक्रवार) 

२४ मार्च १९४४ हुबली 

इस पुस्तक के प्रसिद्धी के बारे में कुछ विचार - धार्मिकता के संबंध में 
जगतका अज्ञान अपरिमित है। हरेक मनुष्य सुख चाहता है लेकिन सुख 
किस तरह मिलेगा इसका पता किसको लगता नहीं। सुखरूपीं फलको पैदा 
करनेके लिए धार्मिकता रूपी बीजसे पुरायशीलता नामक वृक्षको बोने और 
बढ़ानेकी अभिलाषा ज्ञान और कला किन विरले ही आत्माओं को साध्य है। 
सबसे पहिला साधन तो धार्मिकता की समक्त है। इस सच्ची समक्त के 
अभाव ने जो जगतमें और अंध:कार फैला दिया है। इस अंध:कार को दूर 
करने के लिये गुरुसमागम करना अथवा शास्त्रों को पढ़ना और उनमे दिये 
हुये उपदेश का मनन करना चाहियें। अच्छे संस्कारों का अभाव अज्ञान और 
असंयम ये ही दुनिया का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। धार्मिकता के नाम पर 
झूठा घमंड और दंभ को छोड़कर सच्ची धार्मिक समक्त का अभाव ही है। 
बरस में एक दिन संतके पास जाकर दूर से जै जै करने से या कल्यागा
शब्द सुन लेने से अज्ञान अंधकार मिट नहीं जाता। कुछ भी न करने से 
मात्र संतदर्शन करना अवश्य लाख दर्जे उत्तम है, शेर को दूर से देख लेनेसे 
शेर का जोर वा ताकत मनुष्य में नहीं आती लेकिन इतना फायदा जरूर 
होता है कि शेर जैसा बनने की महत्वाकांक्षा का एक समय मनमें उदय हो 
जाता है। यह विचार चिरस्थायी रहें तब तो ठीक हैं नहीं तो जब समागम 
की छाया से बाहर निकले कि फिर वही संसारकता आकर घेत लेती है।
सच्चे संतों का समागम आजकल दुनियावालों के लिए बड़ा कठिन है 
इसलिये धार्मिक ग्रंथों का पठन और मनन करने का व्यसन मुमुतोंके लिय 
अत्यंत आवश्यक और कल्याणकारक है। लेकिन आधुनिक ग्रंथों में मूल 
वस्तू जो प्रायः सभी प्राचीन धार्मिक ग्रंथो में प्रथम कही गयी है यथार्थ 
स्वरूप में नहीं पायी जाती। एक तरफ यह भी सत्य है और दूसरी तरफ 
इस बातकी भी आवश्यकता प्रतीत होती है कि यह सत्यरूपी अमृत जनता 
को किसी नयी पद्धति से किसी नये आकर्षक ढंग से, किसी ऐसे मोहक 
पात्रमें दिया जावे कि जनता प्रेम और अभिरुचि से उसका रसपान 
करे इसलिये इस अनुपम सत्यामृत को माई हरेक युग में नया रूप नया 
शरीर देकर धार्मिकता को पुनर्जीवन देकर लोगों की सोयी हुई अभिरुचियां 
जाग्रत करती है।

ऐसे ग्रंथों के प्रकाशन के लिए जनता की तरफ़ से उत्तेजन मिलने और 
हरेक तरह की आर्थिक सहाय्यता की आवश्यकता है। जिन लोगों के पास 
धर्म के नाम पर हज़ारो और लाखों रुपये जमा हैं उनका धर्म है कि थैलियों 
का मुंह खोलें लेकिन खेद का विषय है कि इन लोगों को धर्म के प्रचार के 
प्रति फर्ज की स्वप्न में भी कल्पना नहीं है, और जिनको इस तरफ प्रेम 
और उत्साह है और जो धार्मिक प्रचार के रात दिन विचार करते रहते हैं 
और स्वप्न भी ऐसे ही देखते रहते हैं उनके पास साधन की कमी और 
आर्थिक उदासीनता है जहां साधन है वहां सद्बुद्धि नहीं।

 घर में आदमी बीमार पड़ा तो डाक्टरों के बिल हजारो रुपयों के फौरन भर 
दिये जाते हैं लेकिन गुरु के दिये हुए मंत्र जप के प्रभाव से अथवा गुरुकृपा 
से अगर शारीरिक और मानसिक व्याधि मिट जाती है तो गुरुको भेटा किये 
जाते है दो सड़े हुए केले और तीन मुसंबी, साष्टांग प्रणाम और हृदय शून्य 
झूठी प्रशंसा साधारण जनता इससे आगे नहीं जा सकती।

धार्मिक प्रचार किस तरह किया जावे यह भी आजकल एक महा जटिल 
प्रश्न हो रहा है, धार्मिक ग्रंथ छपवाने में सहाय्यता करने की बात तो दूर 
रही उलटे बिना कारण विघ्न रूप बनते हैं। कितने लोग ऐसे भी पाये जाते 
है जो साधारण और गैरजरूरी बातों पर तो बहुतही खर्च कर डालते हैं और 
जब ऐसे काम के लिए मदद करनेका सवाल उनके आगे आता है तो लगते 
है बगले झांकने और बहाने निकालने; दान और चन्दे की तो बात अलग।
कई लोग तो पढ़ने के नाम से पुस्तक ले जाकर फिर ग्रंथ ही पचा जाते हैं 
लौटाने का नाम तक नहीं लेते ऐसे लोगों से धार्मिक प्रचारके सहाय्यता की 
आशा कहां तक रखी जाय ।

डाक्टर एनी बेसन्ट को लगन थी कि गीता जैसा अमूल्य ग्रंथ जनता के 
हाथ में बहुत बडे अंदाज में जाना चाहिए तो उस परोपकारी विदुषि स्त्री ने 
ऐसी व्यवस्था की कि यही ग्रंथ चार आनेमें बिकने लगा लेकिन हमारी 
समाज से एक भी ऐसा व्यक्ति न निकला जो ऐसी व्यवस्था करें। अलबता 
इसके बाद गीता प्रेस गोरखपुरसे इसके बारेमें कुछ प्रशंसनीय व्यवस्था हुई 
है। ज्ञान और धर्म के प्रचार के बारे में धन व्यय करने की सद्बुद्धी हमारे 
अंदर स्वभावतः होनी चाहिये जिसके अभावसे आज हिंदू जाति की यह हीन 
दशा हो रही है। गीता के अठरावें अध्याय के ६८.६६ श्लोक में भगवान 
श्रीकृष्ण ने साफ़ घोषित किया है कि जो मनुष्य है और उससे विशेष प्रिय 
मुक्ते कोई प्राणी नहीं है, हुआ नहीं और होना नहीं है। हरेक बातके प्रयत्न 
से धार्मिक ज्ञान प्राप्त करो, जो ज्ञान को फैलाता है वह जगन्नियंता को 
अपना ऋणी बनाता है यह अंतर पवित्रता की नदियां बहाता है वह स्तुति 
कर रहा है वह बंदगी कर रहा है वह उत्तमोत्तम दान दे रहा है और उत्तम 
तीर्थ स्नान वा यात्रा कर रहा है क्योंकि जिसको ज्ञान नहीं वह सुकर्म और 
दुष्कर्मका भेद समक्त सकता नहीं और मार्ग की पसंद कर सकता नहीं। 

जीवन की दिशा नियत कर सकता नहीं, स्वर्ग वा मुक्ति मार्ग पर उसको 
प्रकाश मिलता नहीं, संसार-रग में ज्ञान जैसा पानी नहीं; एकांत में ज्ञान 
जैसा अश्रु पोंछने वाला दूसरा प्रिय साथी नहीं सारी दुनिया जब स्वार्थवश 
छोड देती है तब ज्ञान जैसा कोई दूसरा मित्र नहीं जब दुःख के सागर में 
मुसीबतों के नाव पर चढ़ा मनुष्य तुफान के झपेटे में आ जाता है तब ज्ञान
 ही प्रवीण नाविक बनकर उसको डूबने से बचाकर सलामत किनारे तक
 लाकर छोड़ देता है।  ज्ञान जैसा कोई गहना नहीं और ज्ञान जैसा कोई 
बख्तर नहीं, यही ज्ञान नर को नारायण बना देता है इसी ज्ञान से मनुष्य 
को इस दुनिया में शांति मिलती है और दूसरे लोक में स्वर्गमें स्थान 
मिलता है, और ज्ञान के साथ जब प्रेम सेवा भक्ति और शरणागति का
 सुयोग होता है तब कायम और जन्मों तक रहे ऐसी शांति मिलती है ।

धार्मिकता के अन्य पुण्य मार्गों में जैसे कि ब्रह्मभोजन, तीर्थयात्रा
गुरुचरणभेट इत्यादि में जितना पूर्णिमा का प्रकाश है। ज्ञानमार्गकी 
उन्नतिकी राह में पहिले उतना ही अमावस की काली रात्री का अंधेरा है। अंत में जिन माई भक्तों ने इस छोटे से ग्रंथ के प्रसिद्ध करनेमें सहाय्यता की है उनको हार्दिक धन्यवाद दिये सिवाय मैं नहीं रह सकता। माई को प्रार्थना है कि माई कार्य के लिए जनता में प्रेम पैदा हो और उसके कार्य के प्रचारमें वे मेरी थोड़ी बहुत सहायता करते रहें, माई का काम तो होता ही रहेगा इसमें कोई संदेह नहीं है। धैर्य की आवश्यकता   है दुनिया का अवकाश आजादी और अभिरुचि देखकर भक्तजनोंको काम करना है।

श्री हिंदुस्तान प्रेस के संचालक और मॅनेजर श्रीयुत तिवारी जी को अनेक
धन्यवाद हैं जिनके सहयोग, उत्साह और कार्यक्षमता के सिवाय इस ग्रंथ 
और इससे पहिले के ग्रंथ माई सहस्रनाम (हिंदी) का प्रगट होना अत्यंत 
कठीन था। मुख्य और मूल सहायक का नाम मैं नहीं जाहिर कर सकता। 
अप्रगटता में भी एक प्रभावशीलता और पुण्यशीलता होती है। इस कलिकाल 
में सेवाभाव अत्यंत कठिन है मगर इतनी संतोष की बात है की माई नजर 
में भी सेवा का मूल्य उतना ही बढ़ गया है। 

माई सब सेवकों का स्वकल्याण और कौटुंबिक कल्याण कर रही है और भविष्यमें भी जरूरी करेगी।





दासानुदास माईमार्कण्ड

ॐ ऐं श्रीं जयमाई माईगुरु अनन्यभक्ति । 

विश्वमें असंख्य ग्रंथ है, असंख्य पाठक है और असंख्य मुमुक्षु हैं मगर भगवत  प्राप्तीकी धन्यता प्राप्त किए हुए व्यक्ति बहुत ही विरले हैं । श्रीमंती आती है और जाती है इसलिए सुलभ है। मगर सत्योपदेश सुनानेवेले और सुननेवाले व्यक्तियों का मिलना अत्यंत दुर्लभ है। मुक्तिमार्गमें की हुई उन्नति कभी भी अनेक जन्मों तक अदृश्य अथवा निष्फल नहीं होती और इस मार्गमें एक बार खुली हुई आखों की दिव्यदृष्टि जन्म जन्मांतर तक कभी कमजोर नहीं होती । आजकल साधारणत: लोग साधारण बातों को अंगीकार कर शांत हो जाते हैं लेकिन कितने ऐसे भी हैं जो उच्चकोटि की बातों को समझाने के इच्छुक होते है ऐसे लोगों के लिए थोड़ा बहुत लिखना आवश्यक प्रतीत होता है।दिन प्रतिदिन सत्य क्या है और असत्य क्या है अमूल्य चीज कौन सी है और मामूली चीज कौन सी है इस बात का तुरंत निर्णय करने की  विवेक-बुद्धि दीरे धीरे नष्ट हो रही है। धार्मिक साधनों में हरेक बात का पूरा पूरा मूल्य तय करनेकी समबुद्धि न होनेके कारण मनुष्योंको बहुत संशय और भ्रम में रहना पड़ता है। इसलिये यह आवश्यक है कि हरेक बात का यथार्थ मूल्य किया जाय उसको स्वयं समझा जाय और दूसरों को समझाया जाय। हरेक बात की एक ही कीमत कर देने से सच्चो समझ के अभाव से मनुष्य की सत्यसिद्धिरूप या प्रगति रूप उन्नति नहीं हो सकती। मामूली और भ्रमात्मक उन्नति के अभिमान में आकर मनुष्य गुमराह होकर धार्मिक अनर्थ कर बैठता है। आजकल छोटी बातों के झगड़ों में बड़ी और महत्वपूर्ण बातों को हम प्रायः भूल ही जाते हैं। हिंदू मुस्लिम, वैष्णव अछूत, नहाना न नहाना, चूल्हे चौके इत्यादि के महात्म्यने सच्ची धार्मिकता को गहरे गढ़ में डाल दिया है। किसी भी धर्मका अध:पतन तब होता है। जब लोगोंकी समझ विपरीत हो जाती है या तो समझ होने पर भी ढोंग और पाखंड की मात्रा बढ़ जाती है; जब उस धर्म के अनुयायी सच्चे हीरे को छोड़कर कांच को ही सर्वस्व समझ और मान बैठते हैं और हीरे से भी बहुत अधिक कीमत देते हैं, जिससे कि उन्नति के बदले अवन्नति शुरू होती है।हिंदू धर्म में बहुत ही अमूल्य सोना हीरे मोती पन्ने इत्यादि जवाहिर मौजूद हैं लेकिन यह अखुट खजाना धूल रेती और पत्थरों से ढका छिपा पड़ा हुआ है। हजारों वर्षों से पूजी गयी और पढ़ी गयी श्रीभगवान पूर्ण पुरुषोत्तम श्रीकृष्णचंद्र की श्रीमद्भगवद्गता भी एक अलौकिक सुधारस पूर्ण ग्रंथ है। सार का भी सार और उसकाभी साररूप श्रीमद्भगवद्गीतमें धार्मिक सभी ग्रंथोका निचोडरूप आखरीन सत्य की सुधारस बानी मानी गयी है लेकिन कितने ही लोगों को ऐसे अमूल्य ग्रंथ को समझने का सौभाग्य प्राप्त नहीं है। इससे बढ़कर हमारी कमनसीबी और नहीं हो सकती।सभी धर्मों का निष्कर्ष (निचोड़) का भी निष्कर्षरूपी जो तत्व है वही तत्व माई करुण से हजारों मन धूल और पत्थरोंके बीचसे निकाल कर 
माईधर्म द्वारा उपदिष्ट किया गया है। माई धर्म का सार यही है।
ईश्वर की मातृभावमा, विश्वदृष्टि, विश्वसेवा विश्वप्रेम, माई भक्ति और 

माई शरणांगति फक्त इन छे तत्त्वासे यथाशक्ति जीवन जीने वालोंके 
लिए सुख आनंद शांति और मुक्ति सरल और हस्तगत है।'माईधर्म का शरणागति का आखिर को कहा गया तत्त्व मोक्षके लिए बस है। मेरा कुछभी हो, मुझे मार या तार, दिल चाहे सो कर तेरी खुशी; मैं कुछ नहीं समझता, कुछ नहीं जानता, सब कुछ तेरा है, तूही करले'' इसी निश्चयसे जीवन जीना, और अपनी भक्ति नहीं छोड़ना, अपनी चित्त-प्रसन्नता को भी नहीं खोना, जीवन भर के इस स्थायी भाव को शरणागति कहते हैं। सत्य का सत्य और सभी सत्यों में परम सत्य बस यही है।

दूसरी सभी बातें परमलाभ को प्राप्त करने के लिए तैयार हुए जीवात्मा के लिए ये जरूरी है। अलबत्ता धर्मोपदेश के अंतिम तत्व तक जीवात्मा को ले जाने के लिए हजारों ऐड़ी गैड़ी बातें कहानी पड़ती हैं सुननी और सुनानी पड़ती है। यह छे तत्त्वों की अमूल्य कल्याणकारकता की बात कोई नई ढूंढ निकाली हुई नहीं है और न यह तत्त्व ही कोई पहिले न सुना है और है सब धर्म ग्रंथों में यह कही गयी बात है मगर अंतर इतना जरूर है कि दूसरे धर्मों में इन तत्वोंकी महत्ता को न तो इतने जोरदार शब्दों में कहा गया है और न तो इन तत्वोंको हजारों मामूली बातों के झंझटों से अलग रखा गया है इन बे जरूरी झंझटों ने सत्य के तेजमय प्रकाश को ऐसे छिपा दिया है जैसे बारीश के दिनों में बादल सूर्यको ढक देते हैं। धर्मकी समझ बहुत ही सूक्ष्म है। बड़े बड़े ज्ञानी और पीडितों को भी कभी कभी भ्रम हो जाता है फिर मामूली स्थूल बुद्धि वालों को तो सभी धर्मों की बातें एक सरीखी लगती है या तो मामूली बातों को महात्म्य देकर उनकी समानता बड़े और अमूल्य तत्वों से करने लगते हैं। किसी भी सिद्धांत का मूल्य कभी आगे न सुनी हुई बात की कसौटी पर नहीं किया जा सकता - यह नजर या तो धर्माध लोगोंकी या तो स्थूल बुद्धि वालोंकी होती है अगर ऐसा होता तो सनातन धर्म के सिवाय और कोई धर्म अस्तित्वमें ही न आता। विश्व के सारे धर्मों की अगर परीक्षा की जाये तो एक भी सिद्धांत ऐसा नहीं मिलेगा जो हिंदू धर्म में न आ गया हो। 

अहिंसा नही बात नहीं, भ्रातृभाव, संघटन, आत्मशुद्धि, सहिष्णुता, विश्वास, श्रद्धा इनमें से कोई भी तत्त्व ऐसा नहीं है जो पहिले न सुना गया हो। एक बड़े जगी औषधालय में जहां बड़े बड़े पीपों में हरेक दर्द का दवा मौजूद है वहां एक दर्दी को छोड़ देने से उसका रोग आपही नहीं मिट जाता  एक तरफ रोगी को ऐसे औषधालय में छोड़ देना और दूसरी तरफ उसको फक्त छे गोलियां खिलाकर उसके रोग को नष्ट कर देना इन दो बातों में जमीन आसमान का अंतर है। रोग निवारण की महत्ता या मूल्य दवाई के नयेपन' या उसके नाम जो पहिले कभी नहीं सुना था' ऐसे गुणों पर निर्भर नहीं है। दवाई कितनी भी मामूली क्यों न हो वा कितनी भी मशहूर क्यों न हो उसकी कीमत तो उसके लागू होने के गुण से की जा सकती है। इतनी समझ हो तो आगे बढ़ना नहीं तो जो कुछ परंपरा से चलता आ रहा है चलने देना सब कुछ ठीक ही चल रहा है। माईधर्म में कुछ छूमंतरकी बात नहीं है,कोईप्रमाण की बात नहीं किसी व्यक्ति विशेष के कहने की बात नहीं - किती शास्त्र या वेद, स्मृति, पुराण का उपदेश नहीं है। मगर प्रत्यक्ष आत्मानुभव, विश्वनियमों और परम सत्यों की बात है। शास्त्रों, उनकी विधि, अथवा व्यक्ति विशेष पर कोई आक्षेप की बात नहीं - सच्ची बात तो यह है कि सब शास्त्रों वा व्यक्ति विशेष का उपदेश भी अटल विश्वनियमों और परम सत्यों के आधार पर ही रचा गया है फरक मात्र समझाने की रीति का है। यह बात मूर्ख लोगों के लिये नहींलिखी जा रही है। 



उदाहरणार्थ बडौदा से अहमदाबाद जानेवाले एक ग्रहस्थ को एक गुरु ने कहा कि सूरत से आनेवाली गाड़ी में बैठ जाओ दूसरे गुरु ने कहा बंबई से आनेवाली गाड़ी में बैठ जाओ। शिष्य (गृहस्थ) को भ्रम होता है कि बम्बई से आनेवाली गाड़ी में बैठु या सूरत से आनेवाली? शिष्य को विश्वास है टिकट खरीद कर पड़ता है कि बम्बई से सूरत और सूरत से यहाँ तक आनेवाली गाड़ी यही है बात एक ही है टिकटका दाम खरचेगा आगे प्रवास कर सकेगा जिसको बुद्धि और विश्वास नहीं है बम्बई और सूरत की गाडियों के फेरे में पडकर ज्यों का त्यों बैठा रहेगा - उससे प्रवास नहीं होने का ।

जो साधक मूल तत्त्व विश्वनियम परम सत्य से शुरुआत करके काम करता है और उसी को पकड़कर बैठ जाता है वह गलती नहीं करता जितने रुपये का मन उतने आगे का ढाईसेर इस निश्चय से हिसाब करनेवाला साधारणत: धोखा नहीं खाता लेकिन अगर दुर्भाग्यवश या अज्ञानतावश कहीं ढाईसेर के बदले डेढ़सेर का गफलत कर बैठा तो फिर रातभर हिसाब ही करता रहें कोई पता नहीं लगने का - धार्मिक समझ भी इसी तरह है। इस नियमसे चलनेवाला इधर उधर न देखकर सीधे मार्ग पर जाकर बहुत जल्दी उन्नति कर सकता है हिसाब करने की रीति ठीक होने से अज्ञान या अंध:कार की जगह ही नहीं रहती और साधक सरलता से आगे पैर बढ़ाता हुआ फुर्ती से आगे बढ़कर अपनी परम सिद्धि सिद्ध कर
लेता है।

जो तत्व माई मार्ग के लिए कहे गये है वे किसी भी धर्म के लिए सत्य है क्योंकि जो माई मार्ग का अंतिम सत्य है वह गीता में और सभी धर्मों में कहा गया है सर्वधर्मन्परित्यज्य मामेकं शरणंब्रज अहत्वां सर्वं पापेभ्यों मोक्ष इप्यामि मा शुचः - (18 - 66) - शरणागति’  अंतिम बात बस एक ही है लेकिन धर्म के नाम से अनेक प्रपंच बढ़ा दिये गये हैं। एक बात सोचने योग्य है। दो दूध के कटोरे हैं दोनों में दूध हैं इनमें से एक में मक्खी गिरकर मर जाती है। पहिले भी दोनों में एक ही प्रकार का दूध था अब भी एक ही है। बल्कि मक्खीवाले कटोरे में अगर दूध के साथ खुब सुगंधित मसाले भी डाले जायें तो भी बुद्धिमान लोग उसका त्याग कर स्वच्छ दूध ही ग्रहण करेंगे। शुद्ध का ग्रहण और अशुद्ध का त्याग यह निर्मल बुद्धि हरेक मनुष्य में होनी चाहिये। एक तरफ फक्त छे तत्त्वों का एक ध्यान से पालन करना और उसी प्रकार का जीवन निश्चय रूपी एक छोटी सी अमृतधारा बहती है और दूसरी तरफ एक महान सागर है जिसमें ये ही छे तत्त्व मौजूद हैं मगर पीया न जावे वैसे पानी के अंदर और हजारों अनिष्टों के साथ छिपे हुए हैं। दोनों बातों में आकाश पाताल का अंतर है और इसी नजर से माईमार्ग का, माईधर्म का स्वरूप खुद माई ने आदेश के साथ प्रचार के लिए दिखा दिया है।ईश्वरका मां स्वरूप, सारा विश्व उसी का विस्तार है, विश्वप्रेम, विश्वसेवा
माईभक्ति और माई शरणागति से जीवन जीना इन छ: तत्त्वोंको जिसने 
ग्रहण किया है वह माई माईभक्त है। बहुत से माईभक्त और हिंदुओं की माता का फरक नहीं समझते, ऊपर कहे गये ६ तत्त्वों को समझ कर जो माईभक्ति करता है सिर्फ वहीं पूर्ण माईभक्त है, औरोंका अधिकार कम नहीं है मगर माईभक्त उसका नाम हैं जो इन छ तत्त्वों को स्वीकार कर उस प्रकार जीवन जीता है फिर चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी क्यों न हो परम लाभ तो जो जितना पुरुषार्थ करता हैं उतना उसको मिलता है, फिर वह हिंदू हो या मुस्लिम, ख्रिश्चन हो या अछूत, कृष्ण भक्त हो या रामभक्त, शिवभक्त हो या देवीभक्त अथवा हिंदू धर्म के किसी भी संप्रदाय का क्यों न हो, भक्ति सबको पावन कर देती है, मगर अनावस्था से अलग अलग सिद्धांतोंकी मान्यता के कारण भी है। 

बस इसी नजर से जो भक्त इन छे तत्त्वों को स्वीकार कर यथाशक्ति पालन से जीवन जीते है। उनका नाम माईभक्त है और माईभक्तों में भी जिनका शरणागति का निश्चय हो गया है और जिनकी रोजकी यही मानस स्थिति है। कि 'मार या तार बस एक तूही मेरी मां हैं मैं दूसरा कुछ नहीं जानता ऐसे लोगों को शरणागत माईभक्त की संज्ञा देने की आवश्यकता प्रतीत होती है।

हरेक माई भक्त अपने को परम माईभक्त मानने की और कहलाने की अभिलाषा रखता है इसलिए व्यवस्था अनुसार सूक्ष्म भेद समझ कर एक एक श्रेणी के भक्त का स्थान निर्णय कर पृथक-पृथक भूमिका अनुसार नाम रखना अनुचित न होगा - अपनी भूमिका मनमें समझकर अपना स्थान नियत करना - अपना दर्जा या तो अपने निरीक्षण से या गुरू से समझकर नियत करना और दूसरे किसी को कुछ कहना नहीं। दूसरों की परीक्षा कर उनको नीचा दिखाकर या उनकी निंदा कर अपने को बडा या श्रेष्ठ नहीं समझना।

सत्यों में भी अनेक प्रकार है अल्प सत्य, अर्थ सत्य, और पूर्ण सत्य और फिर इनमें भी अनेक प्रकार हैं सन सत्यों का शरणांगत माईभक्त कुछ तो मूल्य जरूर करता हैं, स्वीकार करता हैं, अपनाता है और पालन भी करता है, मगर इन सबसे विशेष मूल्य वह शरणागति और माई भक्ति का करता है और उसके पिछे विश्वप्रेम विश्वसेवा और विश्वदृष्टि को महात्म्य देता है और बाकी सत्यों को वह महत्त्व तो देता है लेकिन बहुत कमआधुनिक संसार में जो कुछ चाहिये सब कुछ मौजूद हैं मगर प्रयोजक (काम में लगानेवाला) नहीं मिलता - गाड़ी है, घोड़ा है, जोडने का सरेजाम भी मौजूद है मगर प्रयोजक का अभाव है - दुनिया घोड़े के आगे गाडी रख कर सरंजाम की अभिमान के साथ प्रदर्शन में शोभा पाने और नाम कमाने के इरादे से मेज कर खड़ी रहती हैं और खरीदने वाला गाड़ी नहीं चलती देखकर रोदन कर रहा है। बाप के जूतेके एक पग से बेटे के जूते का एक पग मिल गया दोनों बाप बेटे इस पर लढ़ पडे। झगड़ा इतना बढ़ गया कि बाप अपनी औरत को बेटा अपनी मां को माँ अपने पति को अनावस्था के लिए एक दूसरे को दोष दे रहे है अस्सल हकीकत तो जैसे ऊपर कहा गया है वैसी है कि समझ में आग लग गई है। प्रयोजक नहीं मिलता - सौभाग्यवश अगर प्रयोजक मिल जाता है तब तो वह फौरन गाडी के आगे घोडा जोतकर और योग्य जत को उसकी जोड़ी के साथ मिलाकर सबके मन का समाधान कर शान्ति का राज्य स्थापित कर देता है सबको यथा योग्य सुख शान्ति का उपदेश देकर सरल सीधा और शीघ्र मार्ग बताता है नहीं तो दुःख अशांती और झगड़े का बोलबाला रहता है।सुख शांति आनंद और मुक्ति की प्राप्ती करने की उन्नति के सभी साधन मौजूद हैं लेकिन उसके प्राप्त करने की उन्नति के सभी साधन मौजूद हैं लेकिन उसके प्राप्त करने के लिये उत्साह लगन और सच्ची समझ होनी चाहिये और होनी चाहिये तन मन धन से निष्कपट और निष्काम क्रिया जब ज्ञान और वैराग्य रूपी दोनों पुत्र और किया रूपिणी पुत्री इच्छा रूपिणी मां के शरण में जाकर उसके चरणो में रहते हैं सब एक सुखी कुटुंब बन जाता है। सच तो यह है कि इच्छा बहुत ही निर्बल और नाम मात्र की रह गयी है तीव्र इच्छा दृढ संकल्प और अखुट उत्साह की अत्यंत आवश्यकता है।

धार्मिक उन्नति का विषय अत्यंत गूढ और महासूक्ष्म है औरएक एक बात समझने अथवा गलतफहमी दूर करने के लिये बहुत वर्ष और कभी कभी तो कई जन्म निकल जाते हैं और सबसे बडे दुर्भाग्य की बात तो यह है कि जनता को इस बात की कल्पना भी नहीं हैं कि धार्मिक उन्नति एक बहुत बडा शास्त्र है, इसी लिये मैं सब समझ चुका हूँ' इस झूठी समझ की गफलत में सोये रहते हैं। जिस तरह एक जंगल में एक नदी किनारे रेतीमें बंगला बनाना एक निर्धन के लिये असंभव है इसी तरह ऐसी समझ वालों के लिये धार्मिक उन्नति करना कठिन ही नहीं असंभव भी है। शरीर मन और हृदयके एक एक अणु की जब रचना बदल जाती है तब कहीं रतीभर उन्नति होती है, इस लियें तो ८४ लाख योनियों कीआवश्यकता कही गयी है। इसलिए मुमुक्षोंके लिए इन बातों को समझने की बड़ी जरूरत है कि - “नजनयेत बुद्धि भेदम्' जिस आत्मा को जो कोई मार्ग, सन्त, अथवा गुरु पसंद हो या इष्टदेव प्रिय हो उसको उस कार्य में हमेशा उत्साहित करते रहो और इस धार्मिक काम में कभी कोई विघ्न मत डालो और ऐसा कार्य न करो जिससे साधकके मनमें अश्रद्धा लघुता वा निराशा उत्पन्न हो। 

किसी भी आत्मा की धार्मिक उन्नति में विघ्न डालना उसके मनमें निराशा गलतफहमी या अश्रद्धा पैदा करने जैसा कोई दूसरा पाप नहीं माईं धर्म का यहीं सिद्धांत है कि हरेक को, चाहे वह किसी भी धर्म का क्यों न हो, धार्मिक उन्नति करने की पूरी स्वतंत्रता है और होनी भी चाहिए क्योंकि यह तो ईश्वर का दिया हुआ जन्महक है।

किसी भी आत्मा के साथ अपनी तुलना कर यह भावना मन में नहीं लानी चाहिए कि मैं उससे श्रेष्ठ हूँ। हरेक आत्मा अपूरी है कोई एक बात में विशेष बलवान है तो कोई दूसरी में दुर्बल हैं और खास बात तो यहीं हैं कि यह सब माई कृपा का ही प्रदर्शन है। किसी की भी प्रभावशीलता उसकी अपनी कृती वा कमाई की नहीं है। जो आज संत है वह कल कृपा सु?? जाने पर एक मामूली आदमी बन जाता है और जो आज नालायकी की मूर्ति है वह कल माई कृपा से परम पूजनीय संत बन जाता है यही मई की लीला का पूर्ण विकास आखोंके सामने रखकर मनुष्योंको अपनी श्रेष्ठताका तुच्छविचार मन में कभी नहींलाना चाहिये।


गलतसहमी मिटाने के लिए अत्यंत सूक्ष्म बात को समझने की जरूरत है। संत, गुरु, भक्त, ज्ञानी, योगी, गुरुमाई सब को सूक्ष्म दृष्टि से पहचानने और समझने की आवश्यकता है। जब यह कहा जाता है। कि गुरु में अनन्य भक्ति होनी चाहिए तब यह गलतफहमी नहीं होनी चाहिए कि संत दर्शन, संत समागम, संत सेवा, अथवा संत कृपा का गुरुसेवा या गुरू भक्ति से कोई विरोध है। आखिर की स्थिति में तो अनन्य गुरू भक्ति से इन सब बातों के विरोध का कोई प्रसंग ही नहीं आता साधारणत: यह सत्य है कि गुरु एक होने पर भी अन्य संतों का समागम वा सेवा करने से सर्वदृष्टियानुभव के लाभ की प्राप्ति होती है। इस सूक्ष्म बातको न समझने से सख्त गलतफहमी होने की संभावना है। संत सौ मगर गुरु एक यह सत्य अनुभवसे अच्छी तरहसे समझमें आयेगा, शायद फरक समझानेसे लोगोंके ध्यान में न आवे। पाठकोंने अगर यह बात समझ ली कि संत और गुरु में रात और दिन का फरक है तो अपने दिल का समाधान हो जायेगा इस गुरु महात्म्य के उपदेश से मूर्खतावश आक्षेप वृत्ति का मन में जन्म न होने देना ही श्रेष्ठ है। सत्य सबको नहीं रुचत लेकिन अगर सच न कहा जावे तो संभव है कि बहुत से मुमुक्षों को बहुत काल तक अज्ञान और अंधेरे में रहना पडे दो पहाड़ों के बीच से नाव निकालकर गहरी नदीं में ले जाकर चलानी है। एक तरफ अतो भ्रष्ट ततो भ्रष्ट नहीं होना चाहिए और दूसरी तरफ कूपमण्डुकत्व नहीं होना चाहिए। एक ही वस्तु स्थिति प्राप्त होने पर अपनी अवस्था और अधिकार के अनुसार मनुष्य परम लाभ उठा सकता है। गाय का कोई दूध पीता है तो कोई रक्त - एक ही पृथ्वी में से मिरची का खेत लगाकर मिरची ली जा सकती है और ऊख का बाग भी लगाया जा सकता है। माई कृपा के सिवाय और सब पुरुषार्थ की बातें भ्रम रूप हैं। माई कृपा और गुरुकृपा एक ही है माई गुरु के पास भेजती है और गुरु माई के पास भेजता है। माई से गुरु और गुरु से माई इसी तरह लाखों चक्कर लगाने के बाद गुरु और माई एकत्व प्राप्त होता है फिर चरकर लगाना मिट जाता है और गुरु माई की एक ही इष्टमूर्ति अस्तित्वमें आती है। | बहुत ही सूक्ष्म विषय समझाने लायक है। गुरु कितना ही बड़ा क्यों न हो आखिर मनुष्य है माई अनेककोटि ब्रह्माण्डजननी है फिर यह माई गुरु एककी क्या बकवास लगा रहा है। आज हजारो वर्षों से भक्तभगवान एक गुरुदेव एक यह क्या अण्डबण्ड बकवास चली आ रही है। भगवान करोडों जीवों का सर्जन पालन और संहार करनेवाला
है और भगवान कहलाने वाला भक्त इस नास्तिकता उच्छृखलता वा तकजाल का जबाब शास्त्रों में साफ साफ नहीं बताया गया है। जवाब यही है कि शास्त्र नास्तिक और दुर्बुद्धि वालों का के लिये नहीं लिखे गये है बल्कि श्रद्धालू लोगों के लिये लिखे गये हैं। | जो साधक अपना कल्याण चाहता है उसको यह विश्वास होना चाहिये कि भूख और प्यास को मिटाने के लिये जिस तरह मुट्ठी भर अन्न और घुट पानी पर्याप्त है उसी तरह शांति और मुक्ति के लिये गुरु और माई या तो भक्त और भगवान् में कोई फरक नहीं है दोनों ही एक है। इस सिद्धांत को ग्रहण करने से स्थूल बुद्धि वालों का भी कल्याण हो जाता है। एकता सिवाय न तो सुख है और न शांति और मुक्ति तो स्वप्नमें भी नहीं मिल सकती। सत्य का भी सत्य यही है कि मनुष्य कैसा ही नास्तिक क्यों न हो सुख तो वह भी मांगता है। सुख शांति सिवाय मिलता नहीं शांति मनकी चंचलता मिटाने के सिवाय आती नहीं मन को निश्चलता ध्यान सिवाय होती नहीं ध्यान प्रेम सिवाय होता नहीं-प्रेम उत्तमता की भावना सेवा और समागम सिवाय होता नहीं - समागम निश्चयात्मक संकल्प सिवाय होता नहीं - भावना युक्तता अर्थात् सभी वृत्तियों की एकरसता और सभी तरह की तैयारी सिवाय जाग्रत होती नहीं - एकरसता व्यवस्थित बुद्धि सिवाय होती नहीं - व्यवस्थित बुद्धि अनंत मार्गों और शाखाओं में घूसनेवाली वृत्तियोंका संयम करके ध्येय प्रति एक वृत्ति करने सिवाय होती नहीं। पहिली स्थिति से अंतिम स्थिती तक का मुख्य साधन एक भावना ही। है। जो अनन्तता में एकत्वकी भावना सिद्ध करता है और जो एकत्वमें
स्थित बुद्धि से अनन्तता की माई लीला का उपभोग करता है वह
आखिर तक जा सकता है।

धार्मिकता की सच्ची समझ तो यही है कि गुरू के पैर पकड़कर आध्यात्मिक मार्गरूपी सीढ़ी के ऊँचे शिखर तक पहुँचने को अपना जीवन ध्येय बनाकर कायम की आत्मिक उन्नति करना। एक तिनके भर की सच्ची उन्नति मनुष्य का चिरस्थायी कल्याण करती है। जब धार्मिकता की यह सच्ची समझ आजाती है तब सारी दुनिया का और जीवन का स्वरूप ही बदल जाता है। जगत बदलता वा फिरता नहीं बदलते हैं मात्र नयन-मन बदले बिना नयन नहीं बदलते और गुरू सिवाय मन नहीं बदलता। अनन्य भाव सिवाय और उससे गुरू की आत्माके प्रसन्नता बिगर करुण पूर्ण वर्षा होती नहीं। इसलिए जगतका और मुमुक्षों के कल्याण की नजर से गुरू में अनन्यभाव और भक्त भगवान की एकता का उपदेश आज हजारों वर्षों से किया जा रहा है। | आत्मउन्नति में एक अवस्था पुष्प भ्रमर जैसी होती है और दूसरी अवस्था कुमुद भ्रमर जैसी होती है और दूसरी अवस्था कुमुद भ्रमर जैसी होती है। पुष्प भ्रमर हजारों पुष्पों में से एक एक पराग का परमाणू निकालकर और संग्रह कर अपने जीवन को धन्य मानता है और कुमुद भ्रमर बस एक ही कुमुद में अपना जीवन खोकर जीवन को धन्य करता है जिसकी जैसी अवस्था और लियाकत होती है उसी के अनुसार साधक उन्नति करता हैं। इस तरह पुष्प भ्रमर का संबंध संत संबंध हैं और कुमुद भ्रमर का संबंध गुरु संबंध है। यहां प्रयोजन कुमुद भ्रमर संबंध से है। इससे पुष्प संबंधकी कोई लघुता नहीं की जाती सिर्फ इतना अंतर दिखाया जा रहा है कि कुमुद भ्रमर की अनन्य दृष्टि होती हैऔर पुष्प भ्रमर की विश्व दृष्टि विश्व दृष्टी भी कोई छोटी बात नहीं है। लेकिन जैसे ऊपर कहा गया है संतोंके समागम से विश्व दृष्टी बढ़नी चाहिये और गुरु के संग से अनन्य दृष्टि समागम और संग में फरक है। समागम नजदीक जाता है और संग एक अंग हो जाता है। सूक्ष्म बुद्धि का यही तो मजा है। इस बातको जो प्रेमका तत्व जानता है वहीं अच्छी तरह समझ सकता है। दूसरे की ताकत इस बात को समझने वा समझाने की नहीं है। प्रेम एक से ही हो सकता है और सेवा में विश्वदृष्टि का अभेदभाव तो होना ही चाहिये। दोनों ही बातें हों, प्रेम सेवा अनन्य दृष्टि और विश्वदृष्टी तो साधक शीघ्र परिपूर्णता को पहुँच जाता है। सांसारिक दृष्टि से भी आदमी सरलता से समझ सकता है। एक बड़े संयुक्त कुटुंबमें जिस तरह घर कही बहूरानी अपने बड़े वा छोटे देवर की अपने पति जितनी ही और कभी कभी तो उससे भी बढ़कर सेवा करती है। जेठानी अथवा ननद के बीमार होने पर सारी रात उनके पास बैठी रहती है लेकिन यह सब होते हुए भी उसका शरीर मन हृदय सब कुछ पति को अर्पण किया होता है और हमेशा मानसिक पूजा तो सब सांसारिक कार्यों के बीच भी पति देवकी ही होती रहती है चाहे पति कितना ही दूर क्यों न हो। इसी तरह का भेद गुरू और संत मे समझना चाहिये। यह बात सिखायी नहीं जाती यह तो हृदय की बात है। गुरु संबंध करनेसे नहीं हो सकता। इस तरह का जबरदस्ती का समन्वय मनोरंजन के लिये, मात्र चेष्टा रूप और नकली होता है। असली संबंध तो अनन्य भाव का होता है। हृदय में जन्मे हुए प्रेमकी ही सभी शास्त्र व्याख्या करते हैं। जिसको प्यारे पति जितना और कोई प्रिय लगता ही नहीं उसको सबसा उसको ज्यादह समझो' की बात सिखाने की जरूरत नहीं रहती। प्रेम जब आता है तब आता है इसमें माई कृपा और प्रारब्द सिंघाय और कुछ पुरुषार्थ नहीं चलता। भेदभाव नष्ट करने के लिये विश्व दृष्टि या जब तक विश्व में मन लिपटा हुआ है तब तक विश्व दृष्टि मगर विश्व से ही दिल उठ गया तब तो गुरु या इष्ट देव में ही अनन्य दृष्टि आखिर काम करती हैं।

अनन्य भावना में भी सूक्ष्म भावनायें रहती हैं लेकिन वर्ण विचार शक्ति के अभाव से तोतेकी तरह फक्त बडबडानेसे इसका तफावत स्थूल बुद्धि वालोंके समझमें नहीं आवेगा। एक भावना से दूसरी भावना पर आने में कितने ही वर्ष जन्म या युग निकल जाते है। योग्य समय आये सिवाय कुछ होता ही नहीं मगर इस प्रकार के ग्रंथ जो इस बात में साधक को सहाय और उत्साह रूप बनते है और आगे आनेवाले प्रसंगो पर प्रकाश डालकर सूचना देते हैं अवश्य परम कल्याणकारक है।
अनन्य भावना में यह भाव है तेरे जैसा मेरी नजरमें कोई नहीं है और आगे बढकर 'तेरे सिवाय और कोई नहीं है और इससे भी आगे बढ कर तेरे सिवाय और कुछ भी नहीं है।'' एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक पहुँचने के लिये अतिशय अनुभव, मनन, ध्यान और अभ्यास की जरूरत होती है और उसमें बहुत ही समय निकल जाता है। पहिली भावना में ‘‘सर्वोपरि'' की भावना है यह बहुत ही अच्छी है। मगर इसमें और लोग मौजूद है। ‘‘तेरे सिवाय कोई नहीं' में भी यही भावना मौजूद है मगर दिलको और कज्ञोई मंजूर नहीं है लेकिन तेरे सिवायकुछ नहीं की भावना में तो विश्व का और खुद का भी आपोआप लय हो जाता है यही सूक्ष्मदृष्टि अनन्य भावना की है। दीन के दयाल छोड कौन शरण जाना’ और छोड चरण कहाँ जाना' इन दोनों भावनाओं में शब्दों का तो बहुत फरक नहीं हैं लेकिन सूक्ष्मदृष्टि से देखा जावे तो भावनाओं में बड़ा अंतर है। किसके पास जाना' और कहाँ जाना' में आकाश पाताल का फरक है। पहिली भावना में और कोई है मगर दुसरी भावना में सब कुछ फना हुआ होता है लेकिन यह फरक फक्त सूक्ष्मबुद्धि वालों अनुभवियों, रसिक लोगों, प्रेमियों और शरणांगत लोगों की समझ में आ सकता है। अनन्यदृष्टि और अनन्य भाव की यहीं बात है।

तो इस तरह से भक्तिमार्ग, प्रेममार्ग का या गुरुशिष्य सिद्धांत हैं। जिसके साथ रहना उठना बैठना होता है उससे स्वाभाविक प्रेम होता है। गुरु दर्शन अथवा संतदर्शन से, गुरुसेवा अथवा देवसेवा से स्वात्मार्पण युक्त प्रेम होता है। जेल की कोठरी में बंद हुए एकांतवासी कैदी को उसमें आते जाते चूहे पर भी प्रेम हो जाता है। समागम से प्रेम, प्रेम से ध्यान, ध्यान से एकता, एकता से सभ्यता और सारुप्यता आती है फिर चाहे गुरु हो या देवगुरु प्रत्यक्ष होने से उन्नति अतिशय सुलभ होती है।

और जब गुरु में ही देव की भावना हो जाती है तब तो उन्नति करना ही बाकीं नहीं रहती है।प्रेम में अनन्य भाव हो तब तो ध्यान हो सकता है। और ध्यान तब होता है जब ध्येय सिवाय विश्व की और किसी चीज या व्यक्ति की हस्ती नहीं रहती। ध्यान से एक तरफ शांति और शांति से सुख मिलता है तो दूसरी तरफ ध्येय से एकता होती है और एकता होने पर कीट भ्रमर न्याय से आपोआप बिना श्रम बिना पुरुषार्थ गुरु जैसा शिष्य हो जाता और गुरु या देव अथवा देव रूप गुरु की सभी शक्तियाँ अनायास शिष्य को प्राप्त होती हैं।

प्रेम पहले से ही पूर्ण नहीं होता। शिष्य और भक्त में व्यक्तिगत साधन तैयारी, सिद्धी, ज्ञान, विज्ञान, मनसंयम में जो कुछ त्रुटियाँ रह जाती हैं वे सब प्रेमसह शरणांति के एक ही मंत्र से पूरी हो जाती है।शरणागति में अनन्य भावना होने पर करुणा की वृष्टिधारा होती है। जितनी शरणागति की तीव्रता उतनी करुणादृष्टि की नि:सीमता -इसलिये माईधर्म में प्रेम और शरणागति ये पहिले और अंतिम तत्व कहे गये हैं। भक्ति तो प्रेम का ही गौण स्वरूप है और सब तत्त्वों की साधना के लिये सेवा जैसा कोई उत्तम साधन नहीं है। इसी हिसाबसे प्रेम सेवा भक्ति और शरणागति के माई तत्व हैं।

किसी को गुरु मार्ग पसंद हो या न हो इसलिये माई धर्म में गुरु का तत्व नहीं लाया गया है। सर्वसाधारण लोगों की योग्यता के बाहर होने से और गलतफहमी होने के डर से इस तत्व को अलग रखा गया है। बाकी का परम सत्य तो यही है:ईश्वर की मातृभावना, (गुरु में मातृभावना) विश्वदृष्टि, विश्वप्रेम, विश्वसेवा (देव की गुरू की, सृष्टि की या तो संतों की), भक्ति (गुरुकी या माई की) और शरणांगति. | इन साधनों से चाहे तो माईको पकड़ना चाहे गुरु को, चाहे माई भी भावना से गुरु में देव और देव में गुरु इस भावना अव्यभिचारिणी भक्ति की अत्यंत आवश्यकता है। प्रेम और शरणांगति से करुणा, ध्यान, एकता, शक्ति, सुख, सारुप्यता सभी कुछ प्राप्त होता है और मनुष्य पामरत्व से मुक्ति तक पहुँच जाता है।

 भाग्यवान पुरुष वे है जिनका जन्म उत्तम माता,पिता के यहां हुआ है जिनकी कि उन्होंने (माता पिता ने) बचपन से भय से अथवा खाना पीना बंद करने के भय देने से वा और दण्ड नीति से क्यों न हों, धार्मिक संस्कार डाले है, नित्य जप और भक्ति का अभ्यास करने कीअभिरुचि और शिष्टता पैदा की है, अंधश्रद्धा से सही, बिन समझे सही लेकिन छोटेपन से अभ्यास करने का नियम और शिष्टाचार पक्का हो गया है। लोगों को यह गलत ख्याब बैठा हुआ है कि अंधश्रद्धा या बिगर समझें पाठ पूजा करने वाले नाहक महिनत कर रहे है। इस मार्ग में किसी भी तरह का किया हुआ श्रम व्यर्थ नहीं जाता। पानी के पाईप के लिये खोदे हुए खड्डे में मैंने देखती आंखोवाले गिरते देखे गयें है मगर कोई बिना आखोंका अंधा उसमें गिरा हुआ नहीं सुना गया। उस अधे को तो वह बचा लेता है जिसका वह ध्यान करता| छोटी उमर में जिस तरह शरीर के किसी भी अवयव को इच्छानुसार बनाया जा सकता है उसी तरह छोटेपनसे बिना बिचारे, अंधश्रद्धा वा अश्रद्धा से ही सही, एक जगह बैठकर एक ही बात काअभ्यास करने से आगे चल कर उन्नति करनेमें बहुत सरलता प्राप्त होती है। मनुष्य स्वभाव बारंबार मंत्र जपसेही बनता है अभ्यास से जीभ अनायासही रटन करती रहती है। आश्रमों का प्रायः लोप ही हो गया है। इसलिये यह फर्ज मातापिता पर है कि घर में ही बच्चों को अभ्यास कराया जावे जिससे उनकी तैयारी इस मार्ग में फहिले से हीहो जावे। शिवाजी महाराज ने कितने थोडे समय में और कितने कम साधनों के होते हुए भी कितना आत्मोद्धार और देशोद्धार किया इस बात का साक्षी इतिहास है। इस सिद्धी का गुप्त रहस्य रामदास स्वामी की असंख्य ब्रह्मचारी शिष्य बनाने की प्रतिज्ञा थी। जब शारीरिक कसरत गृहस्थाश्रम जीवन अथवा बुढापे में नहीं हो सकती तो इतनी कष्टसाध्य पूजन जप ध्यान विधि कैसे हो सकती है, लेकिन छोटेपन से सिद्ध की हुई इस कसरतकी धन्यता कुछ और ही चीज है।

एक बार यह विश्वास हो जाये कि ईश्वर है, दुनिया वालों की हालत प्रत्यक्ष देखकर यह निश्चय हो जावे की जीवन में दुःख तो पहाड़ जितना और सुख राई के दाने जितना है और इतना निश्चय हो जावे कि ईश्वर का सहारा लिये बिगर जीवन व्यर्थ हैं मुर्दे जैसा है तो फिर किसी देव का राम, कृष्ण, शंकर, हनुमान, गणपति,, सूर्य देवा या किसी भी देवता का प्रसिद्ध मंत्र किसी भी साधारण गुरू से आशिर्वाद सहित यथाशक्ति दक्षिणा देकर गुरू मंत्र लेकर आगे बढ़ना दो बातों का खास ध्यान रखना और अच्छी तरह समझ लेना गुरू सिवाय कुछ नहीं मिलता' और हराम का कुछ नहीं मिलता इन दो सत्यों को दूर रखने पर सब बातें फक्त बनाने की हैं दोखेबाजी की हैं।

एक बार मेरे पास एक नवयुवक चिल्लाता हुआ आया की ईश्वर और नाम जप की बात सब झूठी है, मैंने ‘‘ऐं ही कलीं चामुण्डाय विश्वे' का जो अत्यंत प्रसिद्ध और शीघ्र सिद्धी देने वाला मंत्र है, इस हजार बार जप किया है लेकिन उसका कुछभी प्रभाव वा नतीजा नहीं देखा मैंने पूछा 'तेरा गुरु कौन?' उत्तर मिला गुरूको क्या करना है? सप्तशती में मंत्र स्पष्ट लिखा है और मैने शुद्धोच्चार से मंत्र का जप किया है - मैने उससे कहा दस हजार क्या दस कोटि करोगे तो भी गुरू आशिश सिवाय पुण्य और सिद्धी नहीं होगी और उन्नति या प्रगति नहीं होगी।

दूसरा एक प्रचंड साधक मिला। उस महापुरुष ने कहा कि उसने गुरू भी किया है और मंत्र भी गुरू से ही लिया है। कभी ऐसा होता है। कि साधना पूरी होने आती है तब जहाज किनारे के पास सुरक्षित पहुँचकर आखिर किनारे के पास ही डूब जाता है। मैने कज्ञारण जानने के इरादे से उसका जीवन भर का इतिहास पूछा तो मालूम हुआ कि मंत्र तो गुरू से लिया है लेकिन आशीश, तन मन धन की सेवा या उपकृत भावना के सिवाय। वह साधना तो बहुत करता था लेकिन हरेक काम के लिये न तो गुरू की संमति वा आज्ञा लेता या और न तो कार्य सिद्धि के बाद किसी तरह की उपकृत दीनता की भावना से गुरू सेवा तन मनं या धन से करता था।गुरू सेवा यशाशक्ति तीनों प्रकारों से करनी चाहिये, नम्रता और निष्कपटता होनी चाहिये, नम्रता और निष्कपटता होनी चाहिये। श्रीमंतो का मिष्टभाषण और दिखावटी नम्रता की सेवा, धन सेवासिवाय कुछ काम नहीं करती। गुरू स्मरण रूपी मानसिक सेवा तो सबके लिये होनी चाहिये। शरीर सम्र्पात अच्छी न हो तो तन सेवा हो। सकती है मगर धन साधन होनेपर भी धन सेवा के अभाव का बढ़ाना अक्षम्य है; कौटुंबिक बहुत खर्च या स्त्री लड़कों की आर्थिक पराधीनता का बहाना ईश्वर दरबार में नहीं चलता ।

मंत्र लेकर आगे बढो, जितने थोड़े समय में ज्यादह से ज्यादह मंत्र जप की संख्या होगी उतना ही शीघ्र फल मिलेगा। जप के जोर होने से नीचे लिखी बातों में से किसी एक या अनेक बातों का अनुभव हो जायगा () सबका प्रेम तुम्हारे ऊपर बढ़ेगा (-) आर्थिक वा और कोई सांसारिक लाभ होगा ४) आती आफत टल जायेगी () चित्त में आनंद और प्रसन्नता बढ़ जाएगी () शांति आने से व्याकुलता और मन में हमेशा उठते संकल्प विकल्प कम हो जायेंगे () काम क्रोध लोभ मोह मद मत्सर षट् ऋपुओं का जोर कम होता प्रतीत होगा () अच्छे और आनन्दकारक स्वप्न आने लगेंगे या () सच्चा तारने वाला सद्गुरू मिल जायेगा। मेरा अपना अनुभव यही है। 

एक अठारह वर्ष के पूर्व का निजी अनुभव कहता हूँ। सप्तशती के एक सौ पाठ पूरे होने पर मेरे मामाजी ने, जो मेहसाणा (अहमदाबाद के पास) का कलेक्टर था, मुझे उसी दिन तार से पूने बुलाया और जब मैं वहां पहुंचा तो मेरे मामा को दो घंटे के अंदर बडोदे से आदेश हुआ कि बहुचरी अम्बा के मंदिरके अंदर इस तरह की तपास करके रिपोटे भेजो। मुझे मामाजी ले गये। मां मुझे अपने चरणों में खेंच लायी।

एक बहुत बड़ा मद्रासी भक्त सभी मंत्रों में आखिर का जोरदार षोडशाक्षरी मंत्र का जप करते थे, वे रिटायर्ड डिप्टी कलेक्टर ये उन्होंने इस षोषशाक्षरी मंत्र का एक लाख जप करने का निश्चय किया था, उसकी एक लाख मंत्र जप की गणना बेलगाम स्टेशनपर ट्रेन में सेकंड क्लास के डबे में पूरी हुई, उसी वक्त में भी उसी बच्चे में बेलगाम से पूने आने के लिये बैठ गया, मैं युरोपियन ड्रेस में था और उसके सारे शरीर में विभूति ही विभूति।' एक मियां और एक महादेव; मुझे देखते ही उसके हृदय में अनायास विचार आया कि हो न हो वही समागम उसके लाख जपका फलस्वरूप है। वह मुझसे बड़ी सावधानीसे मेरा मरम लेने के इरादेसे बातें करने लगा मगर मैं तो उदंडता और नास्तिकता का जवाब देता रहा इसपर उसने दूसरा टेंशन आनेपर अपना बैग उठाया और दूसरे सेकंड क्लास के डब्बे से जाकर अपना वेष बदलकर अपटूडेट होकर कालर नेकटाई लगाकर मेरे पास आया और मेरे चरणों में नमस्कार कर बोला गुरुदेव अब तो बोलेंगे कि नहीं' मैंने बड़े जोर से उसे आलिंगन किया-मेरी भक्ति तो मर्यादा विधि संयम रहित इश्क की है इसलिए वह जिस मंत्र का जप करता था उसे मैं खमाच राग में गाने लगा क ए इ ल हीं, हसक हल हीं, सकल हीं ए' (यह गाना सांताक्रूझ (बम्बई) के माई मण्डल में कभी कभी खमाच राग में गाया जाता है)।

इस तरह इस साधक को एक लाख जप की संख्या पूरी होने पर अनुभव और प्रोत्साहन मिल गया। इस तरह देव दर्शन अथवा गुरु दर्शन होता है। जब तक यह न होवे तब तक मंत्र जप न छोड़ना। देव दर्शन विशेष लाभ नहीं देता आनन्द देता है और कभी कभी भविष्यकी आफत टल जाने की सूचना या आगे होनेवाली बातें सुना या बता देता है मगर सच्ची बात तो आत्मशुद्धी और उन्नति की है जो गुरू शरीर में स्थित देव की सेवा से और गुरू आज्ञापालन से और जीवन की हरेक बात को गुरू को निवेदन किये बिना नहीं होता। | एक बार सद्गुरू मिल गया कि अपार संसार सागर में से किनारे की जमीन पर पांव जमा हुआ समझना। किनारे पर पहुंचने पर अगर अधीर होकर साधवानी से शीघ्र उन्नति नहीं की तो समुद्र के प्राणी अथवा समुद्र साधक को अपनी तरफ खेंचने का प्रयत्न करते है। इसलिये किनारे पर पांच ठहरा कि साधक को उस जमीन वा स्थिति से बहुत दूर भाग जाने का जोरदार पुरुषार्थ करना चाहिये। फिर जल से बाहर पृथ्वीपर घर घर का टुकड़ा मांगकर खाओ या चक्रवर्ती राजा बनकर बैठो यह तो साधक के प्रारब्ध पुरुषार्थ गुरू की कृपा और माई करुणा का फल स्वरूप है।

समुद्र से जमीन पर जिसका पांव जम गया वह पामर और बद्ध की दो अवस्थाओं से निकल कर मुमुक्ष की अवस्था को पहुंच गया होता है। वह फिर उन अवस्थाओं से नहीं गिरता, कभी गिरता है तो गुरू स्मरण से और गुरु की अनहृद कृपा से शीघ्र खड़ा हो जाता है, एक बार सद्गुरु के स्पर्श से लोहे का सोना हो गया, सो हो गया नीचे की अवस्था में फिर गिरने की आध्यात्मिक अवन्नति नहीं होती -

मुमुक्षों को साधन संपत्ति, साधना, सिद्धी और मुक्ति इन चार अवस्थाओं तक पहुंचने की उन्नति करनी पड़ती है मगर मुमुक्षत्व प्राप्त होने बाद आगे गुरू के सिवाय चंचू प्रवेश जितनी भी उन्नति नहीं हो सकती। मुमुक्षत्व प्राप्त हुआ लेकिन साधन संपत्ति प्राप्त नहीं हुई यह हालत बहुतसी आत्माओं की देखी गयी है। आकाश में बहुत दूर तक गये हुए पतंग को आखिर समुद्र में गिरना पड़ता है। विवेक, वैराग्य, शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा, समाधान आदि प्राप्तव्य सम्पति गुरू की आज्ञा, प्रहार, सेवा और बड़ी बड़ी परीक्षाओं के बिना साध्य नहीं होती, अपने पुरुषार्थ से बहुत हुआ तो साधक मुमुक्षत्व तक पहुंच सकता है मगर ऊपर कहे विषयों कज्ञो साध्य करने के लिए गुरु कृपा, नेतृत्व और मार्ग प्रदर्शन से ही कल्याण हो सकता है नहीं तो मुमुक्षत्व के अवस्था के ऊपर की ऊन्नती बंद हो जाती है।

गुरु का लाभ मिलता रहे, लेकिन गुरुकी सेवा, आशापालन वा कटु शब्द प्रहार, खेंचना और परीक्षा नहीं चाहिए सब कुछ मुफ्त में मिलता रहे, इस आशा से एक गुरु से दूसरे की तरफ दौड लगाने वाले अपनी सारी आयु व्यर्थ गवां देते हैं। आलस्य पूर्ण और मूर्ख विद्यार्थी बहुत बार स्कूल बदलते हैं लेकिन प्रयत्नशील और स्कालर तो एक ही कालेज में पढ़ते रहते है।

गुरु शिष्य संबंध के बारे में शास्त्रों में विस्तार से लिखा गया है। दुर्भाग्य तो यही है कि आजकल गुरु पसंद करने में बहुत ही गलती होती है। सच्चा गुरु और सच्चा शिष्य मिलना अत्यंत दुर्लभ हो गया है। सद्गुरु को पहेचानने के लक्षण तो शास्त्रों में विस्तार से बतलाए गए हैं। लेकिन पहचनने की विवेक बुद्धि, आंखे और दृष्टी कहां से लाना? मनुष्य के राग अभिरुचियां अनेक प्रकार के रहते हैं। कोई कर्मप्रधान, कोई भक्ति प्रधान तो कोई बुद्धि प्रधान दूतिवाला होता है। किसीमें ध्यान, किसी में ज्ञान, किसी में मनन तो किसी में पूजन प्रधान होता है। किसी को चारित्र्यमूर्ति राम, किसी को प्रेम मूर्ति कृष्ण तो किसी को वैराग्य और ज्ञानकी मूर्ति शिवाजीमें प्रेम और पूज्य भावना है। इसलिए जिसका जैसा मानस और जैसी अभिरुचि होती है उसी अनुसार अगर गुरु मिल गया तब तो ठीक है, साधक की उन्नति जल्दी हो जाती है। सर्वसाधारण बीमारी का इलाज सभी डाक्टर कर लेते है लेकिन लोग एक्स्पर्ट के पास क्यों दौड़े जाते हैं? मगर दुनिया की हालत तो यह है कि मलेरिया के बुखार का रोगी टीबी एक्स्पर्ट के पास जाता है, या तो जहाँ किसी डाक्टर के पास ज्यादह भीड़ देखी खुद भी वहाँ भागे। इस हालत में अगर दस बरस तक इलाज करते फायदा न हुआ तो आश्चर्य किस बात का? गुरु का भी क्या दोष है?जहाँ गुरु शिष्य का नाम तक नहीं जानता वहाँ गुरु शिष्य संबंध कैसा? यह तो सिर्फ अंधश्रद्धा और भ्रम मात्र है। सच्चा गुरु शिष्य संबंध तो वह है जहाँ गुरू को शिष्य के सिवाय और शिष्य को गुरु के सिवाय चैन नहीं पड़े। शिष्य को यही लगन हो कि साग जीवन गुरुसेवा और गुरु चरणों में ही बिता है और गुरु को भी यही लगन हों कि मैं अपने शिष्य को अपने से सवाया बना हूँ जहाँ शिष्य अपने गुरु को गुप्त से गुप्त बात कहने को तैयार नहीं और गुरुको शिष्य की उन्नति और कल्याण करने की तमन्ना नहीं है वहाँ गुरुशिष्य संबंध नहीं समझना चाहिये, मगर समझना चाहिये धार्मिकता के नाम पर एक व्यवहारिक सत्यस्वरूप में आत्मवंचनीय, मगर सहज ही में कल्याण भावना का संबंध तो फिर सद्गुरु मिले सो कैसे? बस एक ही जबाब है कि अपने आराध्य देव पर छोड़ देना। बहुत ही बाह्य और व्यवहारिक क्यों न हो, जप पूजन सेवा स्मरण में उन्हीं से मागना कि गुरु से मिलाप करादे। अगर सच्चे दिल से यह प्रार्थना की जावे तो अवश्य सुनी जाती है और सद्गुरु मिल जाता है।

पहिलें देव मुमुक्ष को गुरु की राह में जाकर छोड़ देता है फिर गुरु शिष्य को देव के चरणों में छोड़ देता है। देव गुरु के पास भेजता है और गुरु देव के पास और इस तरह शिष्य की उन्नति विमान के वेग की तरह होती है और अंत में देव गुरु और शिष्य तीनों एक हो जाते है। पहिले शिष्य का विश्वलय हो जाता है, शिष्य गुरु और देव ये तीन व्यक्ति रहते हैं, आगे बढकर गुरु और माई एक हो जाते हैं और उसके बाद शिष्य अपने को भूल जाता है और अत्न को एक माई ही रह जाती है।

गुरु शिष्य और भगवान भक्तके बारे में माई सहस्त्र नाम अंग्रेजी के चौथे भाग में विस्तार से लिखा गया है और दोनों पक्षों के लिये तीखा-मीठा बहुत कुछ लिखा गया है। गुरुशिष्य संबंध में सबसे बडी शक्तियाँ जो माई धर्म में कही गयी है वे है पहिले की और आखिर की प्रेम और शरणांगति-शिष्यकी नालायकी कितनीभी बड़ी क्यों न हों लेकिन प्रेमशक्ति गुरूकी सभी शक्तियों को अपने तरफ खींच लेती है। मगर थोडी उन्नति करने बाद शरणांगति के सिवाय प्रेम अपूर्ण होने से उन्नति रुक जाती है। जितनी तीव्र शरणांगति होगी उतनी तीव्र शरणागति के जवाब रूपी करुणा होगी। कृष्ण और अर्जुन का प्रेम अनुपम था मगर शरणांगति बिना पूर्ण न था। उपदेश, विश्वदर्शन
और मुक्ति का प्रारंभ ‘‘शिष्यस्ते हं शाघि मां त्वां प्रपन्नम' कि प्रतिझा और आरंभ से ही निवेदन किया तब प्रतिज्ञा और निवेदन के बाद करुणा हुई। 



प्रपति ही शरणांगति के सिवाय का फक्त प्रेम प्रेम करनेवाले प्रेमी मित्र को उपरोक्त फल नहीं देता। शिष्य और शासन के लिये (प्रहारी के लिये) तैयार हुए बाद और पूर्ण प्रेमयुक्त शरणागति हुए बाद पूर्णता का लाभ मिल सकता है। एक तरफ शरणांगति और करुणा दूसरी तरफ प्रेम और सारूप्यता। इन दोनों को जोड़ने वाला तत्व अनन्य भाव हैं, जहां अनन्य भाव नहीं वहां गुरू शिष्य संबंध ही नहीं। बारह महिने में बारह गुरु और जिस वर्ष अधिक मास हुआ तब तेरह ऐसी बुद्धि वालों से गुरुरहित मुमुक्ष ही अच्छे हैं जब मन में यह निश्चय हो जावे कि हम चरण पकड़े बैठे हैं, अगर कल्याण नहीं हुआ तो यहीं प्राण दे देंगे'' ऐसा जब दृढ संकल्प होता है तब ईश्वर की या गुरूके करुणा कही दृष्टि धारा छूटती है। प्रेम और शरणांगति स्थूल स्वरूपसे एक ही हैं मगर सूक्ष्म भावनासे यह तफावत है कि प्रेम सर्जन शक्ति और योगरूप है और शरणागति पालनशक्ति और क्षेम रूप है। और दोनों शक्तियों की पूर्णता अनन्य भावना और अव्यभिचारिणी भक्ति से होती है। शरणागति है मगर प्रेम नहीं है इस अवस्था से प्रेम हैं। मगर शरणागति नहीं है की अवस्था उच्चकोटि की है। मगर पूर्णता शरणागति सह प्रेम अथवा प्रेम सह शरणागति सिवाय होती नहीं - | माई धर्म की पूर्ण समझ के लिए जितनी बातें कहीं गयी हैं या आगे कहीं जायेंगी वे बातें कोई आकाश से गिरी अथवा पाताल से फूट निकली हुई नहीं है सची बात तो हमेशा सीधी और सरल रहती हैं मगर
लोग अपना गौरव बढ़ाने के लिये उसके ऊपर हजारों रंग चढाकर मामूली वस्तु को अगम्य अचिन्त्य और अशेय बना देते है। सारा विश्व मां और मां की संतान के प्रति प्रेम के सिद्धांत पर रचा गया है और प्रेम सिवाय और कोई चीज है भी नहीं, इसी प्रेम को शुद्ध करते करते आगे बढना, यही धार्मिक उन्नति और मुक्ति का परम रहस्य है, साधन संतोष और सिद्धी के लिये ज्ञान और कर्म के साधन उत्तम हैं, ज्ञान मंत्री और क्रिया दासी बनकर सब कुछ करते है मगर प्रेम की आज्ञा से और प्रेम को रिझाने के लिये। यह सूक्ष्म सत्य अच्छी तरह से समझ लेना चाहिये| माई धर्म दृष्टि से मनुष्य उन्नति तो उसके प्रेम की उन्नति है। जो पशु से आज मनुष्य हुआ है उसका प्रेम तो बस अपने ऊपर ही है, अपना आहार, अपना जीना, अपनी मौज शौक, अपना जीव बचाना, अपना सुख, अपने स्वार्थ की बात को छोड़कर और वह कुछ भी नहीं जानता और जबतक जवानी है विषय भोग साधन भी तब तक प्रिय, इस पशु स्थिति से जरा उपर उठकर आगे प्रेम का प्रसार होता है। अपने
आपको छोड कर माता पिता, भाई बहन, पति पत्नी, बेटा बेटी में प्रेम, मित्र पर प्रेम, स्वजाति जनों पर प्रेम स्वदेश प्रति प्रेम, विश्व प्रति प्रेम, इष्ट देव प्रति प्रेम, धर्म सहचारक प्रति प्रेम और इस तरह क्रमशः बढ़ते बढते यह प्रेम जब अंत को ईश्वर या माई का प्रेम में परिणित हो जाता है तब मुक्तिद्वार बहुत ही समीप आ जाता है ।

ईश्वर का स्वरूप ही प्रेममय है, माई का एक नाम (७६०) प्रेमस्वरूपिंणी है। श्रीकृष्ण प्रभू प्रेम की मूर्ति होने के कारण पूर्णपुरुषोत्तम कहलाते है। प्रेम महान दिव्यशक्ति है - दुरुपयोग न हो इस लिए साधावनी से शास्त्रों में इस तत्व की व्याख्या बहुत स्पष्टता से नहीं की गयी हैं, मगर पहिले जड़ वस्तुओं बहुत स्पष्टता से नहीं की गयी है, मगर पहिले जड़ वस्तुओं पर प्रेम पीछे चैतन्य पर प्रेम के समय आने पर गुरु प्रेम और ईश्वर प्रेम के जोर से ही सभी आत्माएं मुक्ति तक पहुंच गयी है।

कृपा, करुणा, दया, परोपकार, दान, इत्यादि सभी प्रेम के ही अलग अलग स्वरूप है। करुणा मत छोड़ो, प्रेम स्वर्गीय देन हैं,अमर्यादित और अबद्ध है गुप्त से गुप्त शक्ति है. एकदिल बनाने वालीहै, पवित्रता देनेवाली. सहायता देनेवाली. सहायता देनेवाली और मिलानेवाली, भय को भगानेवाली. धर्म और सहनशीलता को बढ़ानेवाली शक्ति है। मोहकता से भरी हुई, सुजनत और दीनता सिखानेवाली, आनंदमयि और विश्रांतिपूर्ण वृत्ति है। क्षमाशील हृदय बनानेवाली, प्रभावशाली, आश्चर्यजनक प्रवृत्ति बढानेवाली और नयन बदल डालनेवाली कोई महान अद्भुत शक्ति है। पूज्य भाव, नीति, नमकहलाली, और समाधान देने वा कराने वाली, गरीबी में अथवा विरह में भी जीवन में अमृतवृष्टि करनेवाली, देने में और आत्मभोग करने में अनहद आनंद का स्वाद चखानेवाली अत्यंत विलक्षण माई शक्ति है। प्रेमी पर विजय दिलानेवाली, पराजयमें भी विजय की मान्यता पैदा करनेवाली, प्रेमी से अनन्य भावना से एकत्व सिद्धि देनेवाली, मनोमय साक्षी का अनुभ करानेवाली किसी भी विशेष पुरुषार्थ सिवाय गुरु की या माई की सभी शक्तियाँ अपनीतरफ खेंचनेवाली, पूर्णता देनेवाली और अंत को अमरत्व और मुक्ति देनेवाली अत्यंत महाशक्ति, माया से भी परे जो शक्ति है वही यह माई की प्रेम शक्ति है। अपनी प्रेम शक्ति, आत्मभोग शक्ति, आत्मसमर्पण शक्ति और आत्मविस्मरण शक्ति जितनी हो सके उतनी बढाते जाओ और बढ़ाते बढ़ाते गुरु प्रेम और माई प्रेम तक पहुँच जाओ बस इतना ही माई धर्म का सार है। प्रेम सेवा भक्ति औरशरणागति ये चार एक ही प्रेम भावना के भिन्नभिन्न नाम है।

सुकन्या को सूर्यस्तम्भन शक्ति प्राप्त होती है तथा भक्त भगवान को खींचकर पृथ्वी पर लाता है यह कौन सी शक्ति है? इस शक्ति का नाम है प्रेम की अनन्य भावना यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात है इस शक्ति से गुरी कृपा और माई करुणा से एक साधारण शिष्य ऐसे अद्भुत कार्य करता है कि गुरु को भी चकित कर देता है मगर अनन्य भाव गया किये शक्तियां ऐसे बह जाती हैं जैसे एक गुब्बारे में एक छोटा सा सुराख करने पर बंद वायू निकल जाती है और एक बारह इंच चौडा गुब्बारा देखते देखते में एक अगुली जितना हो जाता है। देव क्रोध हुआ तो गुरु बचाता है मगर अनन्य भाव गया तो गुरु का शिष्य पर कितना ही प्रेम क्यों न हो गुरु भी शिष्य को नहीं बचा सकता क्योंकि विश्वनियम अटल है।


गुरुकृपा और माई कृपा से साधक इस मार्ग में निम्नलिखित बातों पर ध्यान देकर और अभ्यास कर आत्मविकास कर सकता है -

) जप, पूजा, दान, इत्यादि पुण्यों का संपादन करना - इससे एक तो साधक की सभी आवश्यक और शुद्ध अभिलाषाएं पूरी होती है।दूसरे सहनशीलता और आपत्तियों से बचने की शक्ति बढ़ती है और तिसरे धार्मिक और सात्विक स्वभाव वाले संतों के संसर्गमें आनंद आता है और उनके रहन सहन को समझने और इस अनुसार रहने की समझ उत्पन्न होती है।

) अभ्यास से साधकों में प्रेम, सेवा, भक्ति और शरणागति के गुणों और कर्मों का पूर्ण विकास होता है - माई अपने भक्त के लिए ऐसी हालतें पैदा कर देती है कि साधक को दुनियादारी के झंझटों से निपट कर साधू संतों और भक्तों के समागम के कई संयोग प्राप्त होते हैं।

) लगातार साधू समागम से, उनकीसेवा और उनके जीवन के अनुकरण से और उनकी कृपा से साधक के अंदर पुण्य और पाप, धर्म और अधर्म, भले और बुरे को पहिचानने की समझ का उदय होता है। और पर्याप्त अभ्यास, सात्विक जीवन और नियमित शिक्षाके बाद साधक में सच्ची धार्मिकता पैदा हो जाती है।

) साधक जब इस धर्मात्मा वृत्ति का हो जाता है तब उसको धार्मिकता, पुराण, भक्ति, निस्वार्थता और उच्च जीवन से प्रेम सा हो जाता है और उच्च जीवन से प्रेम सा हो जाता है और येही गुण उसके अंदर माई प्रेम का अंकुर पैदा कर देते है।

) माई भक्ति और माई प्रेम आत्मज्ञान को दूर करता हैं और साधक को पूर्ण पुरुषोत्तम के बहुत नजदीक पहुँचा देता है माई कृपा से आश्चर्यजनक तरीकों से भक्त के अंदर विश्वास और श्रद्धा की वृद्धि होती है।

) माई प्रेम अंत को माई सृष्टि (विश्व प्रेम) में परिणित हो जाता

 ७) विश्व प्रेम से हरेक वस्तु में माई की शक्ति का आभास नजर आने लगता है जिससे कभी कभी अनायास ही आत्मदर्शन होता है। इस झांकी के बाद आत्मनिवेदन (शरणांगति) से माई के साथ एकता का तार बंध जाने से मन को संतोष होता है मैं माई दरबार में स्वीकार किया गया हूं."।

) इस एकता के तार बंध जाने से माई से चिरस्थायी संबंधीस्थापित हो जाता है जिससे माई कृपा से प्रेम और शक्ति बढ़ने से साधक माई के विश्व चलाने के महान कार्य में मददगार रूप बन जाता है| 

) और आखिरके दर्जे तक जब साधक पहुंचता है तब वह जीवसे शिव बन जाता है और माई में लय हो जाता है।

आगे कही गयी भूमिकाओं की नजर से भक्तों के नौ प्रकार नीचे लिखे अनुसार विभक्त किये गये हैं, यह वर्ग-विभाग आत्मपरीक्षा और अपनी अवस्था आप समझने के हेतु से किया गया है जिससे अपनी आँख खुल जावें और साधक को उन्नति करने में पूरी पूरी मदद मिले, दूसरों की चर्चा वा नाम रखने के लिए नहीं ।

) माई दर्शन भक्त - इस श्रेणी के भक्त ऐसे होते है कि चलो देख आवेंगे क्या जाता है अपना? माई नाम चल रहा है देखने में कुछ बिगडता नहीं; कोई अच्छी बात होगी सुनेंगे, नहीं तो कुछ बिगडता नहीं. कोई अच्छी बात होगी सुनेंगे, नहीं तो कुछ गंवाना तो है नहीं'। इस लिए इस कोटि के भक्तों को माई दर्शन भक्त ही संज्ञा दी जाती है।

) “माई प्रसादभक्त' - इस कोटि के भक्त के मन में इस प्रकार की विचार धारा चलती रहती है कि माई भक्ति की बात ठीक है। समय भी गुजर जायेगा, सुनने को गाना और देखने को नृत्य मिल जाएगा। शास्त्र की दो बातें कानोंपर पडेगी, चार आदमियोंकी पहिचान भी बढेगी, दो घडी का आनंद ही मिलेगा। कोई खराब काम नहीं, चलने में क्या हर्ज है?

) “माई आर्त भक्त' माई भक्तों में अधिकांश लोग इसी विभाग में आते हैं। जब दुःख पडता है तब मां तेरे सिवाय अब मेरा कोई नहीं' की रट लगाकर दुःख निवारण का मंत्र लेते है - रात दिन बडे उत्साह और लगन से जप करते है और इस जप के फलस्वरूप जब दुःख मिट जाता है विपत्ति टल जाती है और बडी बडी मुसीबतों से जान छूटती है तब वह उत्साह ढीला हो जाता है। इस वर्ग के कितने ही भक्त ऐसी वृत्ति के भी हैं जो जप पाठ करने के समय दुःख और संकट निवारण के लिये माई की सेवा को बडी बडी बातें करते हैं और मनमें संकल्प भी करते है मगर दुःख से छुटकारा पाने के बाद सब कुछ भूलकर मस्त हो जाते हैं फिर कौन माई किसकी माई। इस वर्ग के लोग जो लाभ उठाने के बाद उपकार भूल जाते है कृतघ्नता के पाप के भागी बनते है। इस वर्ग से नं. -२ के लोग अच्छे है क्योंकि वे न तो फायदा ही उठाते हैं और न उपकृत ही होते हैं। नं ३ के लोग अज्ञानता वश न ?? अपनी पुण्य कमाई को खो बैठते हैं बल्कि उलटे कृतज्ञता के पाप से अपनी अवन्नति शुरु करते हैं।

) “साई लौकिक भक्त इस कोटि के भक्त ऐसे रहते हैं कि समाज में किर्ति और नाम हो कि हम भक्त हैं - शुद्धाचरण से सामान्य सरल जीवन जीते हैं ज्ञान और भक्ति का मिश्रित जीवन, सीधा सरल शांत और प्रतिष्ठित जीवन चलाते हैं; थोड़ी बहुत धार्मिक उन्नति करते हैं; न कोई दुष्टाचार हैं और न दुर्वासना और न तो कोई इस पंथ में उन्नति वा मुक्ति प्राप्त करने का कोई विशेष उत्साह व लगन है। सामान्य और शांतिमय जीवन व्यतीत करने की इस वर्ग की महत्वाकांक्षा रहती है।

) ‘माई साधना भक्त इस कोटि के भक्त रात दिन पूजा पाठ गुरू सेवा उपवास आदि तन मन धन से करके अत्यंत कष्ट से अंतर शक्तियों को बहुत ही विलक्षण और दिव्य बना देते हैं; साधना के फल स्वरूप अच्छी आर्थिक स्थिति, सांसारिक शांति और रोग निवारणआदि सभी सुख होते हैं; प्रत्यक्ष अनुभव से विश्वास उत्पन्न हो जाता है। जिससे पहिले से बहुत सुखी और शक्तिमान होते हैं।

) माई विधर्मी वक्र भक्तसाधक जब नं. ५ की कोटि से ऊपर चढने लगता है तब साधारण स्थिति से निकलकर एक नाजूक अवस्था में आ जाती हैं जब कि उसको अनुभवी गुरू की पग पग पर जरूरत पड़ती हैं और अगर साधक उस समय अपने को नहीं संभालता तो एक खतरनाक अवस्था में पहुंच जाता है। साधना से आत्मविश्वास बढने के कारण, लेकिन अनुभव की कमी होने से उसका सिर फिरने लगता है और अभिमान रूपी भूत उसके ऊपर सवार हो जाता है। जैसा गुरू वैसा मैं, मुझमें क्या कमी है, गुरु तो अब बूढा हो गया है, पहिले उनकी शक्ति बहुत थी अब मेरी शक्ति गुरू से भी बढ़ गई है”।इत्यादि विचार जब साधक के मन में अपना स्थान कर लेते हैं तब से साधक का अध:पतन शुरू हो जाता है। गुरु और माई चरणों में श्रद्धा और पूज्यभाव की कमी के कारण कृपावृष्टि बंद होने से उलटी बुद्धि जाग्रत होती है और वह गुरु आज्ञा के सिवाय ही खुद गुरू बन बैठता है। और प्राप्त शक्तियों के बल पर दुनिया को अपने अधीन कर लेने की अपनी दुकान जमाना चाहता है और कई अंशों में जमा भी बैठता है नं. ३ की कोटि का भक्त जल्दी लौकिक सामान्य राह पर आ जाता है। मगर इस कोटि का भक्त ऐसी नाजूक अवस्था में पहुंच जाता है कि उसका स्वरक्षण बड़ा कठिन और कभी कभी तो असंभव हो जाता है, क्योंकि नं. ३ का भक्त तो लाभ उठाने के बाद इस मार्ग को लगभग छोड ही देता है इसलिए इस नाजूक स्थिति तक पहुंचता ही नहीं और इसलिये अपने संचित पुण्य को नष्ट कर ही चुप बैठ जाता है मगर नं. ६ का साधक तो बहुत गहरे पानी में उतर गया होता है। गुरु सेवा कर गुरू कृपा संपादन कर गुरू को इतना प्रसन्न करता है कि स्वयं गुरू सीढी रख कर साधक (शिष्य) का हाथ पकडकर माई महल की उंची अटारी तक उसको चढ़ा देता है, जब शिष्य उपर पहुंचता है तब दंभ अभिमान, स्वार्थ, बडाई और खुद गुरू घण्टाल बबने की उत्कट अभिलाषा उसको ऐसा आकर दबाती है कि आगे पिछे का विचार किये बिगर ही वह सीढी को लात मार देता है जिससे गुरू तो सीढी गिरने के साथ साथ नीचे लुढक पड़ता है और अत्यंत शोक और मासिक आघात से महादुःख पाता है और वह (शिष्य) बडे शान और अभिमान के साथ माई दरनार में पहुंच जाता है; उस अभिमानी और गुरु द्रोही शिष्य को आगे ही बात तो मालूम होती नहीं कि माई दरबार में पहुंचने के बाद शिष्य से यह प्रश्न किया जाता हैं कि 'तेरा गुरू कौन और कहां हैं?' इस प्रश्न से निरुत्तर होने पर जब उसको चले जाने का फरमान सुनाया जाता है तब उस अभागे शिष्य की आँखे खुलती हैं और अपने को एक विचित्र अवस्थामें पाता हैं। गुरु का आसरा अपनी मूर्खता से खो दिया, सीढी को खुद नीचे फेंक दिया अब नीचे उतर सो कैसे! हुक्म की पैरवी न करने पर माई अनुचर उसको उठाकर नीचे फेंक देते हैं। गुरु द्रोह करने से न फक्त उसकी सारी अनेक जन्मों की इकट्ठी की हुई पुण्य कमाई नष्ट हो गई बल्कि पतन के एक ऐसे अगाध गढ़में वह पहुँच जाता है कि उसको फिर उठने और पहिले दर्जे तक पहुँचने में न मालूम कितने वर्ष या जन्म लग जायें। इसलिए नं. ६ के भक्त गुरु की अनन्य भक्ति और सेवा कर अंत तक गुरु का आसरा न छोडने का दृढ़ । सकल्पकर फिर आगे बढ़े नहीं तो इस मार्ग में पैर ही न रखें ।

 ) “माई जीवन भक्त'' इस श्रेणी का भक्त ऊपर कही हुई सिद्धी के प्राप्त होने बाद अपने गुरु और माई की शरण में रहकर नं.
की ही तरह का भक्त होता है। सुखी सरल जीवन जिसमें माई के छे सिद्धांत विशेषता से देखे जाते हैं मगर माई के प्रेम की कोई बेचैनी
अथवा दर्द नाम की बीमारी पैदा नहीं हुई होती।

) “माई शरणांगतभक्त इस कोटि का भक्त दुनिया की सब बातें छोड़कर माई के प्रेम में रात दिन चकनाचूर रहता है। सब व्यवहार करता है, हसता है खेलता है मगर आखिर की बात की स्मृति निरंतर और तीव्र रहती है और उसकी विचार धारा हमेशा एक ही प्रवाहकी और दौड़ती है मारने तारने वाली माई है बाकी सब निमित्त मात्र और भ्रम है।

) “माई अनन्य भक्त'' इस विभाग का भक्त आखिर की उच्चकोटि का भक्त है। उसके लिये संसार में मां और गुरु के सिवाय और किसी भी चीज की हस्ती नहीं है- अवधूत जैसा, अब जो हुआ सो हुआ, न हुआ न हुआ, उसके लिये सभी अवस्थाएं समान हैं। ऐसा भक्त ऐसी ही सहज स्थितिका जीवन जीता है और उसके मन में अपने गुरू और माईकी पूर्ण एक्यता हो गई होती है।

जैसे जैसे साधक इस मार्ग में आगे बढ़ता है तैसे तैसे कितने ही व्यक्तियों को गुरु बदलने की आवश्यकता होती है हायस्कूल का हेडमास्टर कॉलेज का प्रिंसिपल नहीं हो सकता मगर जिस समय जो भी गुरू हो उसकी अनन्य भाव से अंत तक पूर्ण सेवा करनी चाहिए क्योंकि इस मार्ग में इससे बढ़कर और कोई पाप नहीं माई सब पापों से मुक्त कर सकती है मगर गुरु द्रोह के पाप से गुरु क्षमा सिवाय वह भी मुक्त नहीं कर सकती - | ऐरी गैरी धूल पत्थर की हजार बातों के बदले माई धर्म के छ सिद्धांतो के पालन करने से बहुत ही कल्याण होता है, अनेक देवी देवताओं की उपासना के बदले अनन्य माई भक्ति बहुत ही कल्याणकारी है और सहस्र नामों से माई सहस्रनाम की शक्ति बहुत उचे दरजे की है - दूसरे विधि प्रयोगों से श्रद्धा और अनन्य भाव से किए हुए फक्त माईजपकी शक्ति विशेष है क्योंकि इससे मनकी एकात्मता साध्य होती है। और सब से बढकर शक्ति अंत में दिए हुए अनन्य गुरु
माई भक्ति के नाम जप और ध्यान की है। मगर इस ध्यान के लिए जो पाठ इस पुस्तकके अंतमें दिया और समझाया गया है वह पाठ नं. १ से। ६ तक की श्रेणी के भक्तों के लिए नहीं हैं - क्योंकि इस नामावली की उपयोगिता गुरु शिष्य भाव की परिपक्वता के बाद होती है - जिनको गुरु की आवश्यकता भाग्य नहीं है या जो कार्य होनेपर गुरु को ठुकराते हैं अथवा जो गुरु से विद्या सीख लेने के बाद गुरु द्रोह करते हैं उनको यह जप पारायण और ध्यान असिमंत्र बनकर इरादा बदलने पर उलटा फल देता है - जिसके फलस्वरूप साधक के ऊपर अनेक आपत्तियाँ आती हैं। अगर दुर्भाग्यवश किसी साधक के दिल में गुरु के प्रति श्रद्धा या प्रेम कम हो जावे तो इसी में ही कुशल है कि साधक उस गुरु के दिए हुए मंत्र को छोडे दे; सबसे अच्छी बात यही है कि गुरु को स्टाफ कह देना और क्षमा याचना कर देना।

जिनको प्रतिती और विश्व हो, जिनको इस बात का यकीन हो कि भी उन्नति नहीं की जा सकती, जिनकी यह मान्यता हो कि गुरु मनुष्य शरीर में माई का प्रतिनिधि है और गुरु द्रोह जैसा कोई और उम्र पाप नहीं है और जिनको यह आत्मविश्वास है कि वे मरते दम तक कभी गुरु द्रोह जैसा कोई और उम्र पाप नहीं है और जिनको यह आत्मविश्वास है। कि वे मरते दम तक कभी गुरुद्रोह न करेंगे उनके लिए यह नामावली अवश्य आखिर की अमूल्य माई करुणामृत वृष्टि साबित होगी। इतना जिनको अपने में आत्मविश्वास हो वे गुरु मंत्र लेकर, पाठ और ध्यान की विधि गुरु से सीखकर अवश्य इस कल्याणकारक नामावली और ध्यान के पुण्य से मुक्ति मार्ग में अत्यंत शीघ्र उन्नति करें यहीं माई चरणों में याचना है।

नं.१ से ६ तक की श्रेणीकें भक्तोंके लिए साधारण पाठ और ध्यान विधि माई सहस्रनाम में दी गयी है मगर सातवी और उससे ऊपर की श्रेणी के भक्तों के लिए विधिनीचे संक्षेप से लिखी जारही है जिस तरह नं. १से ६ तक के भक्तों का कल्याण माई सहस्रनाम के पाठ से होता है। उसी तरह आगे के विभाग के भक्तों का पूजन, जप, ध्यान, माई सहस्र नाम के पाठ सह अनन्य गुरू माई विशिष्ट जप और ध्यान से होता है जो अंत में लिखे अनुसार होगा।
निम्नलिखित माई गुरु अनन्य भक्ति पाठ का एक एक नाम माई के एक एक अवयव का ध्यान करके जपना चाहिये, इसके जपकी विधि गुरू मैत्र की तरह गुरू से सीखी जा सकती है लिखी नहीं जा सकती।

जब कोई विशिष्ट पुरुषार्थ से खास तरह की अंतर शक्तियों को जाग्रत करने के लिए माई कृपा की याचना करता है तब किसी भी अनुकूल शब्दों से मंत्र रटन करने को जप कहते है यह जप मौन (बिन आवाज) होना चाहिये। जिस तरह एक ग्रामोफोन रेकार्ड में अमूक स्वर को जीवन और आयुष्य मिलता है और उसको बजाने से हजारो को आनंद प्राप्त होता है इसी तरह अपने मनरूपी रिकार्ड में अमूक स्वर के अमूक कल्याण किया को जीवन और आयुष्य देने का कार्य जप से किया जाता है। इस जप से शरीर मन हृदय के हरेक परिमाणू का गुरूकृपा और माई करुणा से परिवर्तन हो जाता है और नया शरीर नया मन और नया हृदय प्राप्त होता है। पारायण का अर्थ है कि पूर्ण ध्यान से पाठ बारंबार करते रहना।

ध्यान की क्रिया यह है कि माई या गुरु या दोनों की प्रतिमा के समक्ष बैठकर एक एक अवयव में पूर्ण एकाग्रता से अपना मन डुबो देना और मन का परिणाम इतना सूक्ष्म बना देना कि जिस तरह एक दर्पण में उसके समक्ष रखी हुई हरेक चीज का प्रतिबिंब उठता और नजर पडता है इसी तरह मंत्र के अमूक शब्दोच्चार से मानसरूपी दर्पण में मानस परिमाणू से ध्यान किए हुए हरेक अवयव का, मुखाकृति का प्रत्यक्ष प्रतिबिंब नजर आवे। ध्यान क्रिया बारंबार करने से मन ऐसी स्थिति पर पहुँच जाता है कि फिर न तो प्रतिमा की ही जरूरत पड़ती है और न मंत्रोच्चारण की साधक जहाँ बैठता है वहाँ ध्यान की सहज स्थिति उसको प्राप्त होती है और इससे भी आगे की यह अवस्था है कि आसपास में शांति हो हो या न हो बैठते हुए, बोलते हुए चलते हुए भी माई परमभक्त हमेशा ध्यानस्थ रहता है - व्यवहार में इस कोटि के भक्त अपना रोजाना कामकाज करते दिखते हैं मगर उनके शरीर के भी परिमाणु जाप जपते रहते हैं, मन पारायण करता रहता है और हृदय माई ध्यान में डूबा रहता है। यह स्थिति प्राप्त होनेपर जल कमलवत, नैष्कर्म्य, ननिवध्यतें, न किंचित करोतसि, इत्यादि स्थितियों से कही जानेवाली सहज स्थितियों तक साधक पहुँच जाता है - प्रारब्धानुसार सब कुछ करते रहने पर भी दोष, कर्म, पाप, संग किसी तरह से भी उसकी अवन्नति नहीं हो सकते। जिस तरह एक गुरु या माई या ईश्वररूपी पारसमणि के स्पर्श से शिष्य वा भक्तरूपी लोहे का पात्र स्वर्णपात्र हो जाता है इसी तरह साधक भी कर्म बंधन और अन्य बंधनों से परे और मुक्त हो जाता है।

पारायण से सर्व सामान्य दुःख, आपत्ति, अज्ञान, दारिद्र्य, व्याधि
आधि उपाधि के समक्ष विजयित्व रूप माई कृपा प्राप्त होती है और जप से विशिष्ट शक्तियों की जाग्रति और बलिष्टता रूपी माई कृपा प्राप्त होती है - पारायण जीवन शक्ति देनेवाला (Vitalizer tonic) वाईट लाईजर टॉनिक है, और जप इंजेक्शन (Injection) है और ध्यान क्लोरोफार्म (Chloroform) है, पारायण को उत्तम शारीरिक संपत्ती समझना, जप को रस्सी समझना और ध्यान को माई आनंद मदिरा समझना-पारायण युद्ध मैदान को पूर्ण अनुकूल बना देता है, जप वीर शक्ति देता है और ध्यान असामिप्यत्व और दुरागम्य सत्ता देता है। जिससे कोई नजदीक आ सकता नहीं, शस्त्र वा हाथ लगा सकता नहीं, कोई कष्ट या दुश्मन समीप आ सकता नहीं पारायण में विचार सत्ता और ज्ञान शक्ति है जपमें स्वर सत्ता और क्रियाशक्ति है और ध्यान में प्रेम सत्ता और इच्छाशक्ति है।

शास्त्रों में कहीं कहीं अतिशयोक्ति का प्रयोग स्थूल बुद्धिवालों को परिणाम तक पहुँचाने के लिये किया गया है लेकिन अनुभवियों का यह तो साधारण अनुभव है कि सहज सिद्धि की स्थिति तक पहुंचे हुए भक्तों के समीप जाने से हृदय को परम शांति मिलती है, उनके सहवास से अकथ्य आनंद की प्राप्ति होती है, सेवा से जीवन ध्येय ही बदल जाता है, कृपासे नयन बदल जाते है शरणांगति से सुखदश की प्राप्ति होती है और शरणांगति सहप्रेम से मुक्ति मिल जाती है।

माई मार्गियों के लिए माई भक्तों के लिए जो कुछ आदेश माई ने दिया है, पारायण जप और ध्यान के लिए अत्यंत कठिन तपस्या से माई करुणावृष्टि होने पर जो कुछ माई ने लिखा दिया है या लिखने का आदेश किया है वह माई भक्तों को अर्पण कर ऋण से मुक्त होता हूँकौन सुनेगा कौन सुनावेगा?कौन समझेगा और कौन समझावेगा? माई की अद्भुत, अगम्य और अवर्णीनीय लीला का आज तक कौन क्या कह सका है? बस मैं तो अपने मन का समाधान करने के लिए यह सब लिख रहा हूँ। इससे अगर किसी भक्त ने लाभ उठाया तो मेरा अहो भाग्य, मेरा परिश्रम सफल नहीं तो जो माई की मरजी - उसकी खुशी में मेरी खुशी है।

माई गुरु अनन्य भक्ति और ध्यान की विधि नीचे लिखे अनुसार होगी। जैसे कि पीछे कहा गया है इसकी दीक्षा तो गुरु से ही मिलती है। - यहाँ मात्र समझाने के लिए अर्थ और सूचना दी जाती है जिससे जिज्ञासू लोगोंकी थोड़ी बहुत तृप्ति हो जावे और कल्याण वा पुरुषार्थ करने की क्षुधा भी प्रदीप्त हो जावे - सारे जप को नौ भागों में विभक्त किया गया है और हरेक मंत्र को नौ की संख्यामें जपना चाहिये. हरेक शब्द के सामने अर्थ और नीचे ध्यान विधि दी गई है। पारायणके लिए अर्थ देनेसे जप का हेतू अलग देने की आवश्यकता नहीं रहती - जिस शब्द का जो अर्थ होता है उसी शब्द के जप से वही भावना प्राप्त होती है। और वही सिद्धि मिलती है। स्पष्ट शब्दों में माई गुरु अनन्य भक्ति पाठ, मन में अर्थ की कल्पना करते हुए बार बार रटन करने को पारायण कहते हैं। पाठ के किसी भी एक विशिष्ट नाम जैसे माई करुणा' के जप कहते हैं और माई की मूर्ति के समक्ष बैठकर उसके एक एक अवयव पर ध्यान लगाने को ध्यान कहते हैं।

ॐ ऐं श्रीं जयमाई माझे गुरु अनन्य भक्ति

जप ध्यान आवाहन विसर्जन पाठ या ध्यान शुरू करने से पहिले और समाप्ति तक मन की एकात्मता और पूर्ण स्थिरता प्राप्त करने के लिये अथ और इति याने आवाहन के पहिले और विसर्जन के बाद निम्नलिखित नामोच्चार करना चाहिये। पारायण हो तो अर्थ का मनन करना चाहिये, और ध्यान हो तो अवयव पर दृष्टि कर एकचित्त करना चाहिये।

आवाहन के पहिले और विसर्जन के बाद का जप ध्यान 

मार्कण्डरूप मार्कण्डमाई, मारक तारक एक माई मार्कण्डरूप मार्कण्डमाई, मारकतारक एकमाई, मार्कण्डरूप मार्कण्डमाई, मारकतारक एकमाई. मार्कण्डरूपमार्कण्डमाई, मारकतारकएकमाई, मार्कण्डरूपमार्कण्डमाई।

पारायण के लिये अर्थ मार्कण्डरूपमार्कण्डमाई - मार्कण्ड अर्थात् माई का कोई भक्त (मार्कण्ड सामान्य नाम का अर्थ भक्त) उसके ऊपर करुणा करके उसको योग्यता को पहुंचाकर उसके प्रेम में पडकर उसका ही रूप बनकर उसके अनुयायी भक्तों पर जो माई करुणा करती है, ऐसी परंपरा से अपने अनन्य भक्त द्वारा सब का कल्याण करने के हेतुसे, युगों से जो गुरू शिष्य अथवा संत सेवक की परंपरा चलाती रहती है। वह मां। आगे बढ़कर जो भक्त के हृदय में निवासकर कर निरंतर चली आती हुई इस परंपरा की योजनाकर भक्तजनों क का कल्याण करती है वह मां।

मारकतारकएकमाई - तू मारकताई तू मारकताई मार या तार बस मैं तो एक तुझे ही पहिचानता हूं, और एक तेरी शरण में ही रहा हूं, कभी मारत कभी तारती है, मारने के रुप से तारक का काम करने वाली तू एक ही मां है, आखिर तारने वाली भी बस तू एक ही हैं।

मारकमाईतारकमाई - जो माई मेरे चरणों के सिवाय और कहीं। सुख नहीं, मेरी शरण, मेरी कृपा और भक्ति सिवाय सभी बातें सुख का भ्रम मात्र हैं, ऐसा अनुभव कराने के लिये अनेक प्रलोभनों इच्छाओं और वासनाओं इत्यादि से मारती हैं और इच्छित सुख प्राप्त कराकर क्षणभर के लिए तारने वाली बनकर फिर मारती है फिर मारने तारने और तारने मारने के चक्कर में डाल देती हैं, जिस तरह एक संसारिक मां बच्चे के शरीर को साबुन से घसती है बच्चे के रोने धोने की परवाह न कर स्नान कराकर उसके शरीर को उज्वल बनाकर तेजस्वी पवित्र और शुद्ध बना देती है उसी तरह अनेक तरह के अनुभव कराकर सुख और दुःख के बीच से भ्रमण कराकर अंत में जो आखरीन सुख त ले जाती है वह मां। भक्त के लिये जिसको मारने का बाद तारना अवश्य है वह मां ध्यान के लिये मूर्ति अवयव विभाग मार्कण्डरूपमार्कण्डमाई का ध्येय जिस कमल में माई के चरण छिपे हुए हैं वह कमल है, इस कमल में भावना यह है कि माई का भक्त समुदाय द्वेषभाव द्वैतभाव और भेदभाव को छोडकर इन चरणों को पकड़कर बैठा हुआ है और माई के नयनों से माई की करुणावृष्टि उस पर हो रही है, भक्त का ध्यान उस कमल पर और मुख के आसपास करुणा किरणो रूपी जो गोल ओजस का चक्र है उसपर और कमलनयनोंपर है।

मार्कण्डरूपमार्कण्डमाई - नाम से नीचे के कमल का ध्यान करना बाद में मारकतारकएकमाई नाम से ऊपर के ओजसयुक्त गोलचक्र का ध्यान करना और उसके बाद कमलनयनों पर ध्यान लगाना। त्रिपुटि ध्यान अर्थात् नीचे का कमल ऊपर का ओजस चक्र और कमल नयनों का ध्यान करके अंत में चरणों में ही रहनेकी इच्छा से कमल का ध्यान करना और इस इच्छा से कमलचक्र में मन को लय करनां।

मारकतारकएकमाई नाम से नयन और ओजस चक्र पर ध्यान लगाना।
पाठ और ध्यान के माई आवाहन और विसर्जन के लिये मार्कण्डरूपमार्कण्डमाई से नीचे के कमल का, वात्सल्यमृतवर्षिणि और भुक्तिमुक्प्रिदायिनी सच्चिदानंदरूपिणी से पूर्णमूर्ति का और मारकतारकएकमाई से ऊपर के चक्र का ध्यान करना; इस तरह नौ बार करके आखिर को नीचे के चक्र में मन को लीन करना - | जैसे आवाहन समय आरंभ में कृपा दृष्टि कर' वैसे अंत में विसर्जन समय तेरी कृपा दृष्टि से मैं धन्य हूँ और चित्त प्रसन्न हूँ. इसी भावना को सुदृढ करना।

प्रथम () ध्यान

स्वर - मां, माई, मार्कण्डमाई, मार्कण्डरूपमाई, मार्कण्डरूपमाई, मार्कण्डरूपमाई, मार्कण्डरूपमाई, मां
अर्थ - मारकमाई और तारकमाई का अर्थ ऊपर आवाहन में दिया गया हैं
मां - निर्गुण ब्रह्म की उपासना की सिद्धि के लिये जप; निर्गुण
निराकार ब्रह्मरूपिणि माँमाई - सगुण ब्रह्मोपासना, ईश्वरी या मायाविशिष्ट ब्रह्मस्वरूपिणि मां की सिद्धि और कृपा के लिये माई मार्गियों की उपास्य देवी माँ मार्कण्डमाई - ईश्वरकी मातृभावना, विश्वभावना, प्रेम, सेवा,
भक्ति शरणांगति के पालन से भुक्ति और मुक्ति देनेवाली मां - जिसको माईमार्कण्ड ने अपनी आराध्य देवी बनाया है वह मां या जिसको मार्कण्ड गुरूरूप मान्य है उनके लिये मनुष्य शरीर में स्वयं मार्कण्डरूप मां। 

मार्कण्डरूपमाई - जो अपने भक्त की मां बनकर भक्त का कल्याण करती है वहं मां मार्कण्डरूपमाई -जो भक्त के हृदय में निवासकर परंपरा चलाकर
युग युग में भक्तजनों का कल्याण करती है वह मां। 
ध्यान - मां मां करके मां के मुख का ध्यान करना, माई माई करके माई हृदय का ध्यान करना, मार्कण्डमाई करके गुरू का, जिस तरह वह माई चरणों में चरण पकड कर दंडवत प्रणाम करता हुआ पडा है, उसका ध्यान करना, मार्कण्डरूपमाई से माई की दस चरणांगुलियो से निलकती हुई अज्ञान, अंध:कार, दुःख, कनिष्ठ प्रारब्ध इत्यादि को जलानेवाली किरणरूपी माई करुण की असिधारा का ध्यान और मार्कण्डरूपमाई से माई के चरणों के नीचे कमल है उसके माई मार्गियों रूपी पंखरियों को गोलचक्र जिसके ऊपर चरणदंशंगुलियों की करुणाधारा का तेज प्रकाशित है ऐसे गोल चक्र (कमल) का ध्यान करना ()
) यह ध्यान जीव सृष्टि और भक्त जीवात्माओं के कल्याण की दृष्टि से है, ईश्वरी भक्त और अनुयायी या तो ईश्वरी गुरू और शिष्य या तो ईश्वरी संत और संतदास की दृष्टि के अनुसार है।

 द्वितीय () ध्यान 

स्वर - मां माई मारकमाई, तारकमाई, मारकरूपतारकमाई, तारकमाई, मारकमाई माई मां - अर्थ - मारकमाई और तारकमाई का अर्थ ऊपर आवाहन में दिया गया हैं - मार्कण्डरूपमाई - यहां भक्त की यह मनोवृत्ति रहती है कि दुखआपत्ति, प्रतिकूलता जो कुछ भी होता है वह सब अपने अंतिम लाभ के लिये होता हैं, एक बार शरणांगति स्वीकार कर बैठे कि फिर सब फिक्र माई को हो और इसके बाद जो कुछ भी होता है उससे जीव का कुछ न कुछ कल्याण ही होता है, यही समझ परिपक्व करने के लिये यद नाम है। तारकमाई - अनेक जन्मों में सुख दुःख के अनेक अनुभवों के बाद जब भक्त अंत की परिपक्वता को प्राप्त होता है तब मां मारकमाई होती है। यहां दिया हुआ मारकमाई का अर्थ है।
द्वैतभाव और जीवभाव को मारनवाली मां।। ध्यान - तारकमाई नाम से उपर के दोनों हाथ और हाथों में पकड़े हुए आयुधों का ध्यान करना, तारकमाई नाम से नीचे के दोनों हाथों और हस्तायुधों का ध्यान करना, मारकरूपतारकमाई नाम से मुख के आसपास के किरणों के गोल चक्र का
ध्यान करना। यह ध्यान शरणांगत जीवात्मा की प्रगति की दृष्टि के अनुसार है, सुखदुःख, पापपुण्य सद्गुण, दुर्गुण, हरेक स्थिति में से पसार होकर परिपक्वता प्राप्त करने की दृष्टि से है।

तृतीय () ध्यान

स्वर - मां माई. मार्कंडमाईएक, माईमार्कंडमाई मार्कडरूप माईएक, मार्कण्डरूपमाई, मार्कंडरूप मार्कंडमाईएक, मार्कंडरूपमार्कण्डमाई, गुरुशिष्टएक, मार्कंडरूपमाईभक्तभगवतिएक, मार्कंडमाई शिवशक्ति एक, माईशरणागतकरुणाएक, मारकतारकमाईएक, माईमार्कंडरूप मार्कंडमाईएक
अर्थ - ) मा माई और मार्कंडमाई एक हैं अर्थात् निर्गुण ब्रह्म सगुणब्रह्म और सगुणब्रह्म का उपासक सभी एक है. () माई माई का भक्त और माई की कल्याणकारी शक्ति एक है () भक्त, माई शक्ति और माई भक्त के सच्चे अनुयायी सभी एक हैं () माई भक्त के अनुयायी और गुरुशिष्य भावना एक है (इसमें गूढ रहस्य है। गुरु को जो अनुयायी प्रिय दो सच्चे शिष्यको उसको गुरु भाई कहके स्वीकार करना चाहिये नहीं तो गुरु प्रति प्रेम झूठा और स्वार्थका समझनाचाहिए। दूसरी तरफ शिष्यका गुरु मर प्रेम हो जावे तो गुरु को भी शिष्य पर वात्सल्यभाव संबंधि पूर्ण श्रद्धा होनी चाहिये।इस तत्वको स्वीकार न करने से उन्नति और परंपरा के प्रवाह में रुकावट हो जाती है। () भगवान की या भगवति की जो शक्ति है (मार्कण्डरूपमाई) वह भक्त के अंदर वास करती है। () माई का भक्त शिवरूप है और शक्तिरूप भी है अर्थात् उसको शिव और शक्ति होने की पूर्ण क्रिया प्राप्त है इससे उनसे एकता है () माई, माई की शरणांगति और शरणांगत बनाने के लिए माई की आकर्षण क्रिया और माई की करुणा भी एक ही है। जितनी पूर्ण शरणागति उतनी पूर्ण करुणा () जो सगुण है वो निर्गुण है। निराकार ब्रह्म साकार ब्रह्म और उसका उपासक समुदाय भी एक ही है अर्थात् निर्गुण सगुण भक्त और विश्व सारा ही एक माई की लीला है। 
ध्यान -
 गुरुशिष्य से माई के दायें और बायें चरणों का भक्त भगवति से कमल हस्त और वरद हस्त का, शिवशक्ति से अकुश और ध्वज हस्त का, शरणांगत और करुणा से बायीं और दायी आंखों का, मारकतारकमाईएक से भ्रकुटिमध्यबिंदू का और माई का मार्कंडरूपमार्कंडमाई से माई के मुखारविंदं का ध्यान करना। इस तरह भेदभाव लोप ही जाने से आखिर एक ही बात का ध्यान रह जाता है और सभी छोडदें मगर मेरी मां तू तो मारक हो या तारक तू ही एक है और अंत में सगुण और निर्गुण की एकता माई मां एक और मां माई एक के ध्यान से अद्वैत भावना सुदृढ की जाती है। अद्वैत भाव सिवाय आखिर का कल्याण नहीं होता। इसलिये इस भाव को दृढ
करने की परम आवश्यकता है।

चतुर्थ () ध्यान

 माई सर्व सं क्षोभिणि, माई सर्व विद्राविणि, माई सर्वार्थप्रदायिनि, माई सर्ववशिनि, माईमदनाशिनि, माईद्वैतद्वेष नाशिनि, माई पाप नाशिनि, माई पुण्यपावनि माई वात्सल्यवर्षिणि-  अर्थ -
सबको क्षोभ में डालनेवाली, सबको डराने और दबानेवाली, सर्व पुरुषार्थ (धर्म अर्थकाममोक्ष) की देनेवाली, सर्व प्रकार के ऐश्वर्य पर साम्राज्य देनेवाली, सबको वश करने और वश में रखनेवाला, सब दुश्मनों का और अपने अंदर के मद और उन्माद का नाश करनेवाली, सर्व द्वेष द्वन्द और भेदभाव का नाश करनेवाली, सर्व द्वेष द्वन्द्व और भेदभाव का नाश करने वाली, सब पापों को जला देनेवाली, सबप्रकार के पुण्य प्रदान करनेवाली और जिसकी आकृति का ध्यान करने से भक्त पावन हो जाता है ऐसी पतितपावन और वात्सल्य के अमृत की वर्षा करनेवाली मां। 
ध्यान
संक्षोभिण से कमल हस्त का, विद्राविणि से अकुश हस्त का, सर्वार्थदायिनि से वरदहस्त का, सर्ववशिनि से ध्वज हस्त का, मदननाशिनि से चरणकिरण का, द्वैतद्वैषद्वद्व नाशिनि से कमलचरणों के आसपास कमल पंखडियों का, पापनाशिनि से केशों कापुन्यपावनि से वात्सल्य रूपी अमृत की वर्षा करते हुए दो नयन और चरणों वे मुकुट तक की पूर्ण माई मूर्ति का ध्यान करना।
इस ध्यानमें क्रमसे अष्ट देवियोंकी अंतर भावनाएँ आ जाती है। (ब्राह्मी, माहेश्वरि, कौमारी, वैष्णाधि, वाराहि, माहेन्द्रि, चामुंडा और महालक्ष्मि) और इसी क्रम से वृत्ति क्षेत्र में भी अष्टरिपू भ्रष्ट भावनाओं का समावेश हो जाता है। (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, पाप और पुण्य)।

पंचम () ध्यान

 माईकुसुमा, माईमदनातुरा, माईमेखला, माईवेगिनी, माईमदनांकुशा, माईमालिनि माई भुक्तिमुक्तिप्रदायिनि।

अर्थ - माई जो अनंत प्रकार के प्रलोभनों से अस्थिर बना देती है, माई जो अनेक प्रलोभनों में डालकर अनंत कामनाओं से हृदय को भर देती है, माई जो उन कामनाओं से चिव को आकुल व्याकुल कर आतुर बना देती है, माई जो अनंत प्रकार के बंधनों से बांध कर जीव को बद्ध बना देती है फिर भक्तों के लिये उन्नति क्रम शुरू करके उन्नति और कल्याण के अनंत मार्ग पर अर्थात् रेखा पर कृपा होने पर चढा देती है। माईजो प्रगति प्रयोग में अनंत वेग देती है, कितने ही प्रलोभन वासनाएं और इच्छाएं और वासनायें क्यों न हो भक्त को पूर्ण संयमांकुश देती है, सच्चे भक्त को कमल कुसुम जैसे फूलों की माला में स्थान देकर माला में फूल की तरह पिरो देती है। इस तरह माई जो मुक्ति और मुक्ति दोनों हो परस्पर विरोधी होने पर भी जो भक्त को भुक्ति और मुक्ति दोनों ही प्रशन करती है वह माने।
(पहिले चार नामों से माई उपर से नीचे हो जाती है और दूसरे चार नामों से भक्त को फिर जल्दी ऊपर चढा देती है। गुप्त मर्म यही है कि घडी में गिराती है मगर आखिर को तारती है - मुक्ति की सच्ची चावी यही है कि 'गुरु' और देव का शरणांगत बनकर उनकर छोड दे।)

ध्यान

| कुसुमा से कवरी और केश का, उसमें गये हुए पुष्पों का और गले में सुशोभित मौक्तिक हारका, मदनासे मुकुट सह पूर्ण मुख का मदनातुरा से नयनोंका, मेखला से कटिभाग में सुशोभित रत्नजडित कमरचंद्र का, रेखा से सारी की सुशोभित किनार और उममें अंकित जरी के भरत काम का, वेगिनी से चरणों के नुपूर स्थान के भरतकाम का, वेगिनी से चरणों के नुपूर स्थान का मदनांकुशा से चरणांगुलियों की ज्योति किरण का, मालिनि से चरण के आसपास के कमल और पंखुरियों का और भुक्तिमुक्तिप्रदायिनी से दोनों चरणों को पकडे दण्डवत प्रणाम करते हुए पूर्ण मूर्ति का ध्यान करते साधक खुद पडा हुआ है ऐसी कल्पना करनी चाहिये।

षष्ट () ध्यान

स्वर : मां, माई, मार्कन्डमाई, माईगुरु, माई शिष्य, माईनौका, माईनाविक, माईभुक्ति, माईपूर्णा अर्थ - गुरु माई है, शिष्य माई है, नौका भी माई है और नाविक (नाव चलानेवाली) भी माई है। दुःख और सुख का भोग भोगने की शक्ति देनेवाली, भोगानेवाली और भोगनेवाली भी माई ही है -पूर्ण करनेवाली, पूर्णता को पहुँचाने वाली और पहुँचने वाली भी माई है - ध्यानगुरु से दाएँ चरण का, शिष्य से बायें चरणका, नौका से वरदहस्त का, नाविक के अंकुश हस्त का, और पूर्णा से ध्वज हस्त का ध्यान करना -

    सप्तम () ध्यान 

स्वर - माई शरीरा, माई मानसा, माई हृदया माई धृति, माई स्मृति, माई श्रद्धा, माई शुद्धि, माई सच्चिादानन्दरूपिणि - अर्थ - स्पष्ट है - (धृति - स्थिरता-धैर्य-पकड-रखने की शक्ति स्मृतियाद) शरीर में धृति, मन में स्मृति, हृदय में श्रद्धा, आत्मा में शुद्धि और पूर्ण स्वरूप में सच्चिदानंद रूपिणी माई की कल्पना करना।
ध्यान - शरीरा से माई के समस्त शरीर नखशिख तक का, मानसा से भूकुटिमध्यबिंदू का, हृदया से हृदय का, आत्मा से चरण तलों का, धृति से शरीर के सब अवयवों को कब्जे में रखनेवाली शक्ति की कल्पना कर समस्त शरीर के सभी अवयवों पर दृष्टि फिराना, स्मृति से मैं माई का हूँ माई अवश्य मेरा कल्याण करेगी'' इस भावना से भृकुटि मध्यबिंदू का ध्यान करना, श्रद्धा से श्रद्धा की भावना से माई हृदय पर ध्यान लगाना, शुद्धि से चरणांगुलियों से निलकती हुई विद्युतधारा का ध्यान करना और सच्चिदानन्दरूपिणी से माई चरण पकडे हुए दण्डवत् प्रणाम करता हुआ मैं पड़ा हुआ हूँ ऐसी मानसिक कल्पना कर पूर्ण मूर्ति का ध्यान करना।

अष्टम (ध्यान

 स्वर - माईशरण, माईभक्ति, माईप्रेम, माईध्यान माईशान्ति, माईशक्तिमाईकृपा, माईवत्सला, माईसिद्धि।
अर्थ - स्पष्ट है। ध्यान -
शरण से नीचे के कमलचक्र का, भक्ति से पैरों में नुपूरस्थान का, प्रेम से हृदय का, ध्यान से भ्रकुटिमध्यबिंदू का शांति से मुकुट का, शक्ति से अंकुशहस्त को, कृपा से वरदहस्त का, वत्सला से कमल हस्त का
और सिद्धि से ध्वजहस्त का ध्यान करना -

नवम () ध्यान

 स्वर - माई कल्याण, माई करुणा, माईत्रिपुटि, माईचरण, माई सर्वम्, माई समरस, माईसमरूप, माई मुक्ति । अर्थ - त्रिपुटि - मां माई और मार्कण्डमाई, समरस-माई से एक रस हो जाने की स्थिति। मैं और मेरी माई ऐसा द्वैत भाव नष्ट हो जाने के पहिले की एक रसकी स्थिति, समरूपमैं ही भाई हूं माई मुक्तमें और मैं माई में हूं और मैं जैसा तत्व है ही नहीं। इस परिपूर्ण स्थिति की आनंद अवस्था, मुक्तिमाई के चरणों में लीन होकर मैं और माई दोनों तत्वों के फना हो जाने की सहज स्थिति - ध्यान - कल्याण से वरदहस्त का, करुणा से नयनों का, त्रिपुटि से मुख हृदय और चरणों (नुपूरस्थान) का, चरण से चरणतलों का, सर्वम् से सागर का, नित्या से सागर और उस पर खडी हुई पूर्ण मूर्ति का ध्यान करना, समरस से माई ने प्रसन्न होकर पूर्ण एकता की है ऐसी कल्पना करके, शरीर से शरीर, मन से मन हृदय से हृदय मिल गया है ऐसी भावना से समस्त शरीर का ध्यान करना, समरूप से माई ने अपना मुकुट उतार कर मेरे मस्तक पर रख दिया है ऐसी भावना और कल्पनाकर मुकुटपर ध्यान लगाना, मुक्ति से चरणांगुलियों से निकलती हुई विद्युतधारा रूप या उनमें से एक किरण जैसा मैं हो गया हूं ऐसी कल्पना करके श्रद्धा से चरणतलों पर ध्यान लगाना।

ध्यान पुनरावर्तन प्रेम में पुनरावृत्ति दोष हमेशा क्षणतव्य हुआ करता है क्यों कि मन हमेशा अतृप्त रहता है इसलिए भक्त के हृदयरूपी परदे पर ध्यान के बारे में समालोचना रूपरंग का एक हाथ और लगा रहा हूं - ध्येय अवयव और विभाग की नजर से क्रम नीचे लिखे अनुसार होगा, अर्थ सिवाय ध्यान करनेवालों के लिये एक जगह एकांत में बैठकर फक्त ध्यान करना सुलभतारूप और लाभदायक होगा।

आवाहन से पहिले और विसर्जन के बाद

चरणकमल के आसपास का गोलचक्र () और कमलनयन सह मुख के आसपास के किरणों का गोलचक्र और चरण कमल () नीचे के कमल और ऊपर के ओजस चक्र दोनों को बार बार ध्यान करने के लिये जब तक हृदय निश्चिंत, वितर्करहित, शुद्ध और भक्तिभाव से द्रवित न हो जाय तब तक दो नाम और दो ध्यान से मन मर्कट को नीचे से ऊपर के ध्यान से द्रवित न हो जाय तब तक दो नाम और दो ध्यान से मनमर्कट को नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे की महिनत कराकर शुद्ध और आज्ञापालक बना देना। 

() आवाहन और विसर्जन शुद्ध मन हुए बाद पूर्णमूर्ति का मन से आवाहन करके फिर नीचे और ऊपर के ध्यान से पूर्णमूर्ति को बिराजमान करना। वात्सल्यमृतवर्षिणि भुक्तिमुक्तिप्रदायिनि और सच्चिदानन्दरूपिणि इन तीन नामों से पूर्णमूर्ति का आविर्भाव होता है पहिले करुणा बरसनी चाहिये फिर करुणावृष्टि के परिपाक से भुक्ति और मुक्ति की प्राप्ति होती है।

() नवधा ध्यान 

) सुख, हृदय, चरण (नुपुरस्थान), चरणांगुलि किरण, कमलचक्र
(फिर) चरणांगुलिकिरण, चरण (नूपुरस्थान) हृदय और मुख। २) मुख, हृदय, ऊपर के दोहाथ, नीचे के दो हाथ, ओजस चक्र और नयन (फिर) नीचे के दो हाथ, हृदय और मुख३) मुख हृदय नुपूरस्थान, हृदय नुपूरस्थान किरण, नुपूरस्थान किरण कमलचक्र, कमलचक्र और दो चरण, किरण और नीचे के दो हाथ, नुपूरस्थान और ऊपर के दो हाथ, हृदय और दो नयन, भ्रकुटिमध्यबिंदू, हृदय मुख और ऊपर के दो हाथ, हृदय और दो नयन, भ्रकुटिमध्यबिंदू, हृदय मुख और कमलचक्र) ) कमलहस्त, अंकुशहस्त, वरदहस्त, ध्वजहस्त, चरणकिरण, नीचे का कमलचक्र, केशपाश, मुकुट और पूर्णमूर्ति। ५) केशपाश और गले का हार, मुकुट सह मुख, नयन, मेखला (कमरचंद) वस्त्रकिनार, नुपूरस्थान, चरणांगुलिकिक्षरण, नीचे का कमलचक्र और पूर्णमूर्ति६) मुख, हृदय, नुपूरस्थान, बायां चरण, दायां चरण, वरदहस्तअंकुशहस्त, कमलहस्त और ध्वजहस्त. ) समस्त शरीर, भ्रकुटिमध्यबिंदू, हृदय, चरणतल, समस्त शरीर शक्ति, भ्रकुटिमध्यबिंदू, हृदय, चरण किरण और पूर्ण आनंदमूर्ति. ) कमलचक्र, नुपूरस्थान, हृदय, भ्रकुटिमध्यबिंदू, मुकुटअंकुशहस्त, वरदहस्त, कमलहस्त, ध्वजहस्त) वरदहस्त, नयम (मुख हृदय नुपूरस्थान) चरणतल, सागरसागरतटस्थपूर्णमूर्ति, शरीर से शरीर, मन से मन, हृदय में हृदय की एकता सद समस्त शरीर, एकता सह मुकुट पहनने की भावना और चरणतल 
ध्यान अवयव और भी, कौन से नाम से किस अवयवका ध्यान अथवा भावना है इस नजर से लिखा जाता है, कोई त्रुटि अथवा परस्पर विरोध नजर भावे तो गुरू से समझ लेना या तो माईसे ही पूँछ लेना। मामूली गलती होने में कोई हानि नहीं। आम्रफल किसी भी रीति से खाया जाए तो उसके स्वाद में और
आनंद में कोई फरक नहीं पडता या कमती बढती नहीं होती। 
) कमलचक्र - मार्कण्डरूपमार्कण्डमाई, माईद्वेषद्वैतनाशिनि, | माईमालिनि, माईशरण। ) ओजसचक्र (नयनसह) - मारकतारकमाई, मारकरूपतारकमाई - ) मुख -मांमाईमाएक, माईमदना, माई त्रिपुटि ४) हृदय -माई, माई हृदया, माई श्रद्धा, माई प्रेम. ) नुपूरस्थान (चरण) - मार्कण्डमाई, माईगुरू, माईशिष्य, माईवेगिनिमाईभक्ति, माई त्रिपुटि. ) चरणांगुलिकिरण - मार्कण्ड रूपमाई, माईमदनाशिनि, | माईमदनांकुशा, माईशुद्धि, माईमुक्ति.
)अंकुशहस्त - मारकमाई, माईविद्राविणि, माईशिवशक्ति माई नाविक, माई शक्ति. ) ध्वजहस्त - मारकमाई, माई वशिनि, माई शिवशक्ति माई पूर्णा,माई सिद्धि.) वरदहस्त - तारकमाई, माई भगवति, माई प्रदायिनी, माई नौका,माईकृपा, माई कल्याण १०)कमलहस्त - तारकमाई माई भक्त माई संक्षोभिणी, माईभुक्तिमाई वत्सला । ११) केश - माई पाप नाशिनि, माई कुसुमा, १२) मुकुट - माई पुण्यपावनि, माई मदना, माई शान्ति माई समरूप १३) नयन - माई शरणांगतकरुणा, गाई मदनातुरा, माईकरुणा. १४) भ्रकृटिमध्यबिंदू - मरकतारकमाईएक, माईमानसा, माई स्मृति माई। १५) कटिभाग - माई मेखला १६) वस्त्रकिनार - माई रेखा १७) चरणतल - माई आत्मा, माई शरण, माई मुक्ति १८) समस्तशरीर - माई शरीरा, माई धृति, माई समरस १९) सागर - माई सर्वम्, माई नित्या २०)पूर्णमूर्ति -माईवात्सल्यवर्षिणि, माईमुक्तिमुक्तिप्रदायिनि माई सच्चिदानन्दरूपिणि, माईनित्या।

ध्यान भावना ऊपर लिखे अनुसार कुल २० ध्येय विभाग होते हैं, कमलचक्र में शरण की और शरणागति में एकता प्रेम सेवा और भ्रातृभाव की कल्पना है। इस लिये माई द्वैतद्वैषना शिनि और माई मालिनि की कल्पना
कमलचक्र में की गयी है। 

गुरू शिष्य और शिवशक्ति इन में दुगुन भावना है अलग अलग गुरू और शिष्य, शिव और शक्ति की है और दोनों मिलके गुरू शिष्य और शिवशक्ति ही है।'

केशकी श्यामतामें पापनाशिनि की भावना है और भक्तों के पापरूपी श्यामता को हरण करके अपने केशों के सौंदर्य को माई बढाती है।
मुकुट में पुण्यशीलता और विजयत्व के परिणाम से शांति और अधिकारपने की भावना है चरण के जिस माग में नुपूर पहिने जाते हैं वह चरण (नुपूरस्थान) है। और जो भाग पृथ्वी को स्पर्श करता है वह चरणतल हैं। 

भावना -
मार्कण्डरूपमार्कण्डमाई - से मैं कुछ नहीं हूँ अवकाश और काल का और अनंत विश्वों में मैं एक पामरु जीव हूँ और तेरी कृपा निरंतर बरस रही हैं। यही भावना मन में रखना लघुता, स्वशून्य भावना, माई करुणा भक्तों के संगठन, संगीत और प्रेम सिवाय भक्ति का रंग नहीं जमता और एकता के सिवाय परम माई आनंद नहीं मिलता।
मारकतारकएकमाई - शरणांगति, पूर्ण निश्चयात्मकता और माई करुणा के लिये मातृभावना की उत्तमता की श्रद्धा।
मार्कण्डमाई - माई अपने भक्त पर सब कुछ निछावर कर देती है, उसके हृदय में निवास करती है और उसके भक्त का जिस पर अनुग्रह हुआ उसका भी कल्याण करती है और अंत में भक्त का रूप बन जाती है।
मार्कण्डरूपमाई - गुरू और माई कृपा सिवाय साधक का निजी पुरुषार्थ भ्रम रूप है।
मारकताई तारकमाई - माई बडे से बडा डाक्टर (surgeon) है।शस्त्रक्रिया कर मारती है मगर जीवन देने के लिये।
मारकरूपतारकमाई - जो कुछ माई करती है उसमें गूढ रहस्य ही हुआ करता है और कल्याण छिपा रहता है, मात्र मूर्खता वश स्थूलबुद्धि होने से समझ में नहीं आता।
माई सर्वसंक्षोभिण से माईपुण्यपावनि - काम क्रोध लोभ मोह मद मत्सर पाप और पुण्य इन आठ क्षेत्रों में हमेशा संयमी रहना इसका नाम सच्चा जीवन है।।
माई कुसुमा से माई मेखला - पुरुषार्थ यशाशक्ति करते जाना, मगर यह विचार मन में कभी नहीं लाना कि मैं उन्नति कर रहा हूँ बल्कि यह भावना रखना कि माई या गुरू मेरी उन्नति कर रहा है - इसमें गफलत हुई तो कब और कहां पांव फिसलेगा पता नहीं लगेगा | माईमालिनि - गुरु और माई के चरण पकड़ लेने से अनंत वेगिनि की सार्थकता पूर्ण होती है और विमान के वेग से उन्नति और कल्याण होता है।
 मार्कण्डरूपमार्कण्डमाई गुरुशिष्य एक। विश्व की सामान्य जनता, गुरुशिष्य, भक्तभगवति, शिवशक्ति, शरणांकर्षणकरुणा इन सब का परस्पर सूक्ष्म संबंध है और इस बारे में अभेद भावना, सहिष्णुता, परस्पर प्रेम भावना और एकता की भावना को दृढ करना।
माई शिष्य माई गुरु - जब गुरु भी शिष्य का शिष्य होता है तब शिष्य का सच्चा कल्याण होता है नहीं तो सुख लोभी शिष्य और धन धूर्त गुरू से कल्याण नहीं होता।
माईनौका माई नाविक - माई नौका चलानेवाली भी है सुख दुःख की योजना करनेवाली, पूर्णता देनेवाली और भुक्ति मुक्ति दोनों ही देनेवाली एक माई ही है।
माई शरीर - अपने शरीर में, मन में, हृदय में माई विराजित है। इसलिये इस भावना को दृढ़कर इनको शुद्ध रखो-धृति स्मृति श्रद्धा
और शुद्धि उत्तम प्रकार की रखो।

माँइ ध्यान माई शक्ति - ध्यान सिवाय शांन्ति नहीं मिलती, सिवाय सुख नहीं मिलता, माई के प्रसार आदि कार्यों में तन मन और धन की शक्ति के समर्पण सिवाय माई कृपा नहीं होती और माई के वात्सल्य सिवाय सिद्धि नहीं मिलती।

माई कल्याण - पुण्य से प्राप्त किये हुए कल्याण से करुणा का लाभ बहुत ही बड़ा है। माई गुरु और शिष्य की त्रिपुटि के सिवाय अंतिम कल्याण नहीं हो सकता - चरण पकड़ने से कुछ कुछ होगा। माई से एक रस होने के अनुभव का अमृत चखोगे माई स्वरूप बन जाओगे और माई के चरणों में मुक्ति प्राप्त कर विलिन हो जाओगे - पाठ में नामोचरणकी सुगमता के लिये कितने ही नाम छोटे बना दिये गये हैं और कई अक्षरों को कोष्टक (ब्रैकेट) में दिया गया हैं - अनुकूलतानुसार पूर्ण नाम अथवा छोटे नाम का उच्चारण करना।

अंत में माई चरणों में दास की यही प्रार्थना है कि ऊपर दिए गये अनन्य गुरु माई भक्ति के पारायण और विशिष्ट नाम जप ध्यान के पाठ से माई भक्तों को पहले से विशेष और शीघ्र उन्नति हो, माई अपनी कृपाऔर करुणा दृष्टि से भक्तों को सदा आनंद की स्थिति देती रहे और अपने परम भक्तो को मुक्ति तक ले जाकर अपने चरणों में लय कर दे।

माईमंदिर, हुबली माईवार, २४ मार्च १९४४




माई दासानुदास माईमार्कण्ड